Thursday, August 15, 2013

आज़ादी - हफ़ीज़ जालंधरी

आज जब देश आज़ादी की सड़सठवीं सालगिरह मना रहा है, मैं फिर अपने अंदर आशा और निराशा का एक तराजू पकड़े हुए समय को तौलने की कोशिश कर रहा हूँ. मैं यह निश्चय नहीं कर पाता कि हमारी आज़ादी कितनी और किन मायनों में सफल साबित हो पाई है. 

राजनीति के दिन-ब-दिन बढ़ते घपले, कॉर्पोरेट जगत का अंधा बाजारवाद, खेल के मैदानों मे पैसे की मारा-मारी, एंटेरटेनमेन्ट के नये बनते मापदंड, शासकीय और राजकीय उपेक्षा झेलता आम आदमी - इस सब नाटक को देख कर कभी कभी ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान में कुछ बारह - पंद्रह हजार लोगों का ऐसा  एक गिरोह है जिसके लिये हम सब इनकी सुविधानुसार और समयानुसार कभी दर्शक हो जाते हैं, कभी वोटर, कभी नौकरी मांगने वाले, कभी कन्सयूमरिस्ट मिडल क्लास या कभी कुछ और. पर जो कुछ भी होते  हैं, जाने-अनजाने रहते इनके रहम-ओ-क़रम पर ही हैं.

इस सब के चलते मुझे हफीज़ जालंधरी साहब की मशहूर रचना - आज़ादी- याद हो आई जो, मुझे लगता है, हमारे इस वक़्त का सही आईना है. यह रचना बहुत से ब्लॉगस् पर है, पर अपने यहां साझा करने का लोभ-संवरण नहीं कर पाया . कविता पढ़िये. और हां, स्वतंत्रता दिवस की बधाई!  - 


शेरों को आज़ादी है आज़ादी के पाबंद रहें
जिसको चाहें चीरें फाड़ें खायें पियें आनंद रहें

शाहीं को आज़ादी है आज़ादी से परवाज़ करे
नन्‍ही मुन्‍नी चिडियों पर जब चाहे मश्‍क़े-नाज़ करे

सांपों को आज़ादी है हर बस्‍ते घर में बसने की
इनके सर में ज़हर भी है और आदत भी है डसने की 
 

पानी में आज़ादी है घड़ियालों और नहंगों को
जैसे चाहें पालें पोसें अपनी तुंद उमंगों को

इंसां ने भी शोखी सीखी वहशत के इन रंगों से
शेरों, संपों, शाहीनों, घड़ियालों और नहंगों से

इंसान भी कुछ शेर हैं बाक़ी भेड़ों की आबादी है
भेड़ें सब पाबंद हैं लेकिन शेरों को आज़ादी है 
 

शेर के आगे भेड़ें क्‍या हैं इक मनभाता खाजा है
बाक़ी सारी दुनिया परजा शेर अकेला राजा है

भेड़ें लातादाद हैं लेकिन सबको जान के लाले हैं
इनको यह तालीम मिली है भेड़िये ताक़त वाले हैं 
 

मास भी खायें खाल भी नोचें हरदम लागू जानों के
भेड़ें काटें दौरे-ग़ुलामी बल पर गल्‍लाबानों के 
 

भेडि़यों से गोया क़ायम अमन है इस आबादी का
भेड़ें जब तक शेर न बन लें नाम न लें आज़ादी का

इंसानों में सांप बहुत हैं क़ातिल भी ज़हरीले भी
इनसे बचना मुश्किल है, आज़ाद भी हैं फुर्तीले भी 
 

सांप तो बनना मुश्किल है इस ख़स्‍लत से माज़ूर हैं हम
मंतर जानने वालों की मुहताजी पर मजबूर हैं हम

शाहीं भी हैं चिड़ियाँ भी हैं इंसानों की बस्‍ती में
वह नाज़ा अपनी रिफ़अत पर यह नालां अपनी पस्‍ती में

शाहीं को तादीब करो या चिड़ियों को शाहीन करो
यूं इस बाग़े-आलम में आज़ादी की तलक़ीन करो 
 

बहरे-जहां में ज़ाहिर-ओ-पिनहां इंसानी घड़ियाल भी हैं
तालिबे-जानओजिस्‍म भी हैं शैदाए-जान-ओ-माल भी हैं 
 

यह इंसानी हस्‍ती को सोने की मछली जानते हैं
मछली में भी जान है लेकिन ज़ालिम कब गर्दानते हैं 
 

सरमाये का जि़क्र करो मज़दूरों की इनको फ़िक्र नहीं
मुख्‍तारी पर मरते हैं मजबूरों की इनको फ़िक्र नहीं

आज यह किसका मुंह है आये मुंह सरमायादारों के
इनके मुंह में दांत नहीं फल हैं ख़ूनी तलवारों के 
 

खा जाने का कौन सा गुर है जो इन सबको याद नहीं
जब तक इनको आज़ादी है कोई भी आज़ाद नहीं 
 

ज़र का बंदा अक़्ल-ओ-ख़िरद पर जितना चाहे नाज़ करे
ज़ैरे-ज़मीं धंस जाये या बालाए-फ़लक परवाज़ करे

इसकी आज़ादी की बातें सारी झूठी बातें हैं
मज़दूरों को मजबूरों को खा जाने की घातें हैं 
 

जब तक चोरों-राहज़नों का डर दुनिया पर ग़ालिब है  
पहले मुझसे बात करे जो आज़ादी का तालिब है.

1 comment:

jitendra kumar pandey said...

वस्तुतः लोकतंत्र का अर्थ है अंतिम व्यक्ति की आवाज सत्ता तक पहुचना फिर सत्तासीन को उस पर कार्यवाही करना और न्याय दिलाना होता है.

लोकतंत्र की नीव मर्यादा पुरसोत्तम राम ने राखी थी जहा प्रभु ने समाज के अंतिम व्यक्ति धोबी के कहने पर अपने पत्नी का परित्याग कर देते है एक राजा प्रजा को अपना समझे जाती और धर्म का भेद न हो पर दुर्भाग्य है राम की धरती पर ही लोकतंत्र आज कायम नहीं है

राम के गुणों और राम के संस्कारों के बिना भारत का ललाट कभी ऊचा नहीं हो सकता है

एक अत्तयंत सुंदर लेख जो सर्वथा सत्य है

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