अभी कुछ दिन हुये, शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी लिखित (और नरेश नदीम द्वारा अनुवादित) उपन्यास - "कई चांद थे सरे-आस्मां" में डूब कर निकला हूं|
डूबना यों कि आजकल जहां ज्यादातर हिंदी उपन्यास और कहानियों में कथानक और भाषा का एक अकाल सा है, वहां यह वृहद उपन्यास एक रसपूर्ण कथानक को अलंकृत भाषा के कलेवर में बहुत ख़ूबसूरती से समेटे हुये - जैसा कि ओरहान पामुक कहते हैं - एक 'अद्भुत' उपन्यास है| बहुत समय बाद किसी हिन्दी उपन्यास को पढ् कर यूं लगा मानो गहरे पानी में जा कर भाषा और भावनाओं के अनमोल मोती निकाल लाया हूं, क्यूंकि फ़ारूक़ी साहब ने महीन बातों को, भावनाओं को ख़ूब पकड़ा है और शुष्क एतिहासिक तथ्यों को परिकल्पना और जानकारी के आधार पर पुष्ट ही नहीं, और अधिक जीवंत और स्पंदित कर दिया है|
७०० पृष्ठों का यह उपन्यास उन्नीसवीं सदी की दिल्ली की एक वास्तविक, एतिहासिक पात्र - वज़ीर ख़ानम - की कहानी है| वज़ीर कश्मीर से दिल्ली आ कर बसे एक परिवार की सबसे छोटी लाडली है जो एक तेज़ दिमाग़ रखती है और महत्वाकांक्षी है| वह कम उम्र में ही कुछ तो अपने हुस्न और नारी-शरीर की ताक़त का अहसास कर के और कुछ शायद लड़कपन की झोंक में यह कहने का दम रखती है कि "शाहजादा तक़दीर में लिखा होगा तो आयेगा ही| नहीं तो न सही| मुझे जो मर्द चाहेगा उसे चखूंगी, पसंद आयेगा तो रखूंगी| नहीं तो निकाल बाहर करूंगी|" पर सच ही, आगे उसकी ज़िंदगी में जो मर्द आते हैं, उसी की शर्तों पर - हां, यह बात ज़रूर है कि फिर वह उस से पूरा ईमानदार प्यार पाते हैं| (बताता चलूं कि यह वज़ीर ख़ानम मशहूर शायर नवाब मिर्ज़ा 'दाग़ देहलवी' की मां हैं, दाग़ के पिता लुहारू नवाब के ख़ानदान के थे)|
इस मुख्य कथानक के अलावा इस किताब की खासियत यह है कि फारूक़ी साहब ने कहानी कहते कहते अपना घोड़ा मर्ज़ी के मैदान में बेतहाशा दौड़ने दिया है| तो पाठक के लिये कहीं एक तरफ़ कश्मीर के कालीनों के रंग और धागे हैं तो दूसरी ओर दिल्ली के नामी शायरों के मतले और मक़्ते; एक और वज़ीर ख़ानम की दम रोक देने वाली ख़ूबसूरती है तो दूसरी ओर ठगों की जानलेवा हुश्यारियां; एक ओर राजपूताने की रेत का रंग हैं तो दूसरी ओर लाल क़िले के संगमरमर; एक ओर अंग्रेजी चालबाजियां हैं तो दूसरी ओर पुरानी दिल्लीवालों की दिलदारी....
ज्यादा नहीं कहूंगा - बहुत दिनों बाद कमाल की चीज़ आई है..पढ़िये!
5 comments:
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