Tuesday, March 30, 2010

एक पत्र, भगवान के नाम - 1

बीस साल पहले करीब 1991 - 1992  में, जब मैं उदयपुर में इंजीनियरिंग कॉलेज की बदनाम गलियों को सुशोभित कर रहा था, कॉलेज मैगजीन के लिए मैंने एक व्यंग लिखा था, भगवान् के नाम एक पत्र की शक्ल में.
पिछले रविवार को रद्दी खंगालते हुए यह हाथ लगा. पढ़ा तो देश-काल की बहुत सी यादें ताज़ा हो आयी, बहुत से घटनाक्रम आँखों के आगे घूम गए. और फिर, आप से साझा करने को दिल किया. आशा करता हूँ कि आप ख़ुशी ख़ुशी झेल लेंगे.
पत्र थोडा लम्बा है, इस लिए आज पहला भाग. शेष आगे. और फोटो में - हमारा कॉलेज.  

आदरणीय भगवान,
भक्त का सादर चरण स्पर्श स्वीकार होवे.
बहुत दिनों से आप का कोई समाचार नहीं है. आपसे मिलना भी चाहता था, कि कुछ देर बैठें, सुख दुःख की बातें करें, परन्तु आज कल यहाँ पर सिस्टम कुछ उल्टा चल रहा है - आप को खबर भी नहीं होगी कि आप को चेतक ब्रांड की कॉपी बना दिया गया है. आप के सर्वाधिकार राजनीतिज्ञों और बड़े धर्म-पुरुषों को ट्रान्सफर कर दिए गए हैं और आप से मिलने के लिए उन से आज्ञा लेनी पड़ती है.
अब वहां पर क्या जावें - पान की दुकान खोलने से पहले डिग्री ले कर कई चक्कर लगाये थे पर ऊपर तक पहुँचने ही नहीं दिया गया. नीचे वाले भाइयों ने काफी आश्वासन दिए पर सिर्फ आश्वासन पर ही अटक गए. कई दिनों तक उन वादों के ढेर पर बैठ कर इज्जत की चूइंग गम चबाई पर कुछ होता नहीं दिखा.
फिर यहाँ मेन मार्केट में पुलिस और मुनिसिपल्टी की मदद से एक पान भंडार खोल लिया है. आप की कृपा से धंधा अच्छा चल रहा है. शहर के बड़े ऑफिस के सामने है - बड़े-२ बाबू, छोटे-छोटे चपरासी और गिरे-गिरे नेता - सब आपके भक्त की दुकान पर ही पधारते हैं. एक सुकून तो मिला - यह साले देश को चूना लगते हैं, हम इन को भी चूना लगाने के काबिल तो हुए. खैर - अपनी बडाई खुद क्या करें - आप तो सब जानते ही हैं.
राजनीति से याद आया - अभी कुछ दिन पहले चुनाव हुए थे - चुनाव जानते हैं न आप? अच्छा हाँ, शायद आपके ज़माने में ऐसा कुछ नहीं था. चुनाव एक बड़ी मजेदार चीज़ है - देश के सारे लोग इस प्रक्रिया के ज़रिये यह फैसला करते हैं कि अगले पांच सालों तक हमें कौन बेवकूफ बनाएगा. फिर अगले पांच सालों तक बैठ कर सर धुनते हैं कि यार, अगर फलाना जीत जाता तो मुझे गैस का कनेक्शन मिल जाता, फलाना हार गया इसलिए बैंगन महंगे हो गए आदि आदि.
खैर - चुनाव हुए, कोई जीता कोई हारा - इस से तो आपको मतलब नहीं रखना चाहिए क्यूंकि आप का हाल तो यही रहेगा. हाँ - जो जीत गया, उसकी चांदी हो गयी, पीढियां तर गयी. आपने एक रीत चलाई थी न - गाय की पूँछ पकड़ कर वैतरणी पार करने की. आज कल नेताओं की धोती पकड़ कर वैतरणी पार की जाती है - पैसे की लाठी से हांक कर.
वैसे, पैसे के भी पंख लग गए हैं आज कल. आप का टाइम नहीं रहा कि बहुत खुश हुए तो चार सहस्त्र अशर्फियाँ दान कर दी. पैसा कभी ऊँचा उठ जाता है, कभी नीचे गिर जाता है. अरे हाँ - अपने एक जानकार हैं - मेहता जी (हर्षद) - आज कल तो बंबई में पुलिसियों से गुफ्तगू कर रहे हैं-उन्होंने तो कमाल कर दिया था. पता नहीं कौन सी कैंची का इस्तेमाल किया कि सारे पंख क़तर डाले और पैसा गिर पड़ा - उसे उठा कर जेब में रख लिया. लेकिन भगवान, इर्ष्या तो बड़े बड़ों को मार गयी! जिन्हें पता लगा कि यार कुछ हुआ और अपने तो कुछ हाथ ही नहीं आया, उन्होंने शोर मचा दिया .. और एक काबिल भाई वित्त-मंत्री बनते बनते रह गया.---  

4 comments:

lucky said...

Khoob kaha, tab bhi relevant thaa , aaj bhi relevant hai aur kall???......... Bhagvan jee hee jaanein, ya shayad naa jaanein. !!!!!

Anonymous said...

kripaya iska matlab bhi bata de...

केशव said...

Where is part 2? It is time for making public your subsequent letters to the god.

Rahul Gaur said...

Keshav
They are already published -
Part 2 - http://majhdhaar.blogspot.in/2010/04/blog-post.html
Part 3 - http://majhdhaar.blogspot.in/2010/04/blog-post_09.html
& Last Part 4 - http://majhdhaar.blogspot.in/2010/04/blog-post_15.html
Thanks :-)

Related Posts with Thumbnails