Tuesday, November 01, 2011

राग दरबारी - श्रीलाल शुक्ल जी की कालजयी रचना (Raag Darbari - Shreelal Shukla)

हिंदी लेखकों में संभवत: सबसे करारे व्यंगकार श्रीलाल शुक्ल जी नहीं रहे | उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धान्जलि| 
शुक्ल जी के लेखन से मेरा परिचय उनकी सर्वाधिक प्रसिद्द और साहित्य अकादमी पुरुस्कृत कृति "राग दरबारी" से हुआ | मेरे लड़कपन में दूरदर्शन पर आने वाले इसी नाम के सीरियल को देख कर मैं इस किताब तक पहुंचा था |    
जैसा मैंने पहले  भी कहा है, "राग-दरबारी" न केवल भारत की गाय-पट्टी में बिखरे असंख्य कस्बों और गावों का एक अनिवार्य प्राईमर है बल्कि व्यंग्य की शक्ल में हमारे तंत्र की विफलताओं का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है | 
शिवपाल-गंज नामक एक काल्पनिक क़स्बे में स्थित यह गाथा छोटे कस्बों और गावों की सामाजिक और  राजनैतिक हालत पर तीखा किन्तु सोद्देश्य व्यंगय करती है, और सत्तर के दशक में लिखी जाने के बावजूद यह कमोबेश आज भी प्रासंगिक है |स्वयं लेखक के शब्दों में - " जैसे जैसे उच्चस्तरीय वर्ग में ग़बन, धोखा-धड़ी,  भ्रष्टाचार और वंशवाद अपनी जड़ें मज़बूत करता जाता है, वैसे वैसे आज से चालीस वर्ष पहले का यह उपन्यास और भी प्रासंगिक होता जा रहा है"  |   
इस किताब की मारक क्षमता से आपका परिचय करवाने के उद्देश्य इसी पुस्तक से मैं एक छोटा अंश मैं उद्धत कर रहा हूँ | आप में से जिन्होंने भी दिल्ली के अत्याधुनिक टी-3 हवाई अड्डे के अलावा कस्बाई बस अड्डों पर भी विचरण किया है, उन्हें यह बहुत पहचाना हुआ लगेगा | मेरी मानिये, किताब तुरंत उठाइए |          


हमारे न्याय-शास्त्र की किताबों में लिखा है की जहाँ-जहाँ धुआं होता है, वहां-वहां आग भी होती है | वहीँ यह भी बढ़ा देना चाहिए कि जहाँ बस का अड्डा होता है, वहां गन्दगी होती है |
शिवपालगंज के बस-अड्डे की गन्दगी बड़ी नियोजित ढंग की थी |
गन्दगी-प्रसार योजना को आगे बढाने वाले कुछ प्राकृतिक साधन वहां पहले ही से मौजूद थे. अड्डे के पीछे एक समुद्र था, यानी कम-स-कम एक झील थी जो बरसात में समुद्र-सी दिखती थी | दरअसल यह झील भी नहीं थी, जाड़ों में वह झील थी, बाद में वह एक छोटा-सा पोखर बन जाती थी | गन्दगी की सप्लाई का वह एक नैसर्गिक साधन था | शाम-सवेरे वह जनता को खुली हवा देता था और खुली हवा के शौचालय की हैसियत से भी इस्तेमाल होता था | सुबह होते ही 'शर्मदार के लिए सींक की आड़ काफी होती है', इस सिद्धांत पर वहां उगने वाले हर तिनके के पीछे एक-एक शर्मदार आदमी छुपा हुआ नज़र आता था, बहुत से ऐसे भी लोग थे जो 'भाइयों और बहनों, मेरे पास  छिपाने को कुछ नहीं है' वाली सच्चाई से बिलकुल खुले में बैठ कर और सींक की आड़ भी न ले कर, अपने आपको पेश करने लगते थे | इस मौके से फ़ायदा उठाने के लिए शिवपालगंज के सभी पालतू सूअर सवेरे-सवेरे उधर ही पहुँच जाते थे | वे आदमियों द्वारा पैदा की हुई गन्दगी को आत्मसात  करते, उसे इधर-उधर छितराते और वहां की हवा को बदबू से बोझिल बनाने की कोशिश करते | पोखर के ऊपर से उड़ कर कसबे की ओर आनेवाली हवा - जिसका कभी भवभूति ने 'वीचीवातै:, शीकरच्छोदशीतै:' के रूप में अनुभव किया होगा - बस के अड्डे पर बैठे हुए मुसाफिरों को नाक पर कपडा लगाये रहने पर मजबूर कर देती थी | गाँव-सुधार के धुरंधर विद्वान् उधर शहर में बैठ कर "गाँव में शौचालय की समस्या" पर गहन विचार कर रहे थे और वास्तव में 1937 से अब तक विचार-ही-विचार करते आ रहे थे, इधर बस के अड्डे पर बैठे हुए मुसाफ़िर नाक पर कपड़ा लपेट कर कभी जैन-धर्म स्वीकार करने को तैयार दिखते, कभी सूअरों की गुरगुराहट सुनते हुए वाराह-अवतार की कल्पना में खो जाते | वातावरण बदबू और धार्मिक संभावनाओं से भरा-पूरा था |
सूअरों के झुण्ड सड़क पर निकलते समय आदमियों की नक़ल करते | वे दायें-बाएँ चलने का ख्याल न करके सड़क पर निकलने वाली हर सवारी के ठीक आगे चलते हुए नज़र आते और आपसी ठेल-ठाल में कॉलिज के लड़कों को भी मात देते | बस के अड्डे की चहारदीवारी एक जगह पर टूट गयी थी | इसका फ़ायदा उठा कर वे सड़क से सीधे बस के अड्डे में घुसते और दूसरी ओर फाटक से निकल कर पोखर के किनारे पहुँच जाते | उनके वहां पहुंचते ही पिकनिक और यूथ - फ़ेस्टिवल का समाँ बंध जाता | 
गन्दगी-प्रसार-योजना के अंतर्गत वहां पर बस का अड्डा बनाते समय इन प्रकुर्तिक सुविधाओं का ध्यान रखा गया होगा | वैसे, गन्दगी सप्लाई करने की दूसरी एजेंसियाँ भी वहां पहले से मौजूद थी | उनमें एक ओर मंदिर था जो अपनी चीकट सीढ़ीयों के कारण मक्खी-पालन का बहुत बड़ा केंद्र बन गया था | उसके चारों ओर छितरे हुए बासी फूल, मिठाई के दोने और मिट्टी के टूटे-फूटे सिकोरे चीटियों को भी आकर्षित करते थे | दूसरी ओर एक धर्मशाला थी जिसके पिछवाड़े हमेशा यह संदेह होता था कि यहाँ पेशाब का महासागर सूख रहा है |
गंदगी के इन कार्यक्रमों में ठीक से ताल-मेल बैठाकर छोटी-मोटी कमियों को दूसरी तरकीबों से पूरा किया गया था | उनमें सबसे प्रमुख स्थान थूक का था जिसे हर जगह देखते रहने के कारण राष्ट्रीय चिह्न मान लेने की तबियत करती है | हमारी योजनाओं में जैसे काग़ज़, वैसे ही हमारी गंदगी का महत्वपूर्ण तत्व थूक है | थूक उत्पादन में वहां पान की दस-बीस दुकानें, कुछ स्थिर और कुछ गश्ती - प्राइवेट सेक्टर की सरकारी मान्यता प्राप्त फैक्ट्रीयों की तरह काम करती थीं | थूक का उत्पादन जोर पर था | थूक फ़ैलाने के लिए चारों तरफ कई पात्र ज़मीन में गाड़ दिए गए थे जिनको देखते ही आदमी किसी भी दिशा में - उर्ध्व दिशा को छोड़ कर - थूक देता था और वह इस खूबी से थूकता था कि सारा थूक पात्र के बाहर ही जा कर गिरे | नतीजा यह था कि चारों ओर चार फुट की ऊंचाई तक दीवारों पर, और कहीं फ़र्श पर, थूक की नदियाँ कुछ-कुछ उसी तरह बहती थीं, जैसे सुनते हैं, कभी यहाँ घी-दूध की नदियाँ बहा करती थीं | 
फिर लुढ़कते और रिरियाते हुए भिखमंगे, जो संख्या में बहुत कम होने पर भी अपनी लगन के कारण चारों तरफ एक-साथ दिखाई देते | चाय की दुकानों पर चाय की सड़ी, चुसी हुई पत्तियाँ और गंदे पानी के नाब-दान | आने और जाने वाली बसों की गर्द | मरियल कुत्तों की आरामगाहें | और गंदगी - प्रसार योजना को सबसे बड़ा प्रोत्साहन देने वाली अखिल भारतीय संस्था - मिठाई और पूड़ी की दुकानें, हलवाईयों की तोंद, उनके छोकडों की पोशाक |    

1 comment:

rajneesh said...

zamane ne dekhe jawan kaise kaise
zami khaa gai asmaan kaise kaise

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