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Sunday, January 31, 2016

बापू, ढ़ूँढ़ ही लो तुम कोई नया भारत!

महात्मा गांधी के प्रति, एक राष्ट्र के तौर पर हमारी उपेक्षा अब पूरी तौर पर कृतघ्नता में बदल चुकी है, ऐसा मुझे लगता है.  3० जनवरी 1948 को उनकी हत्या के बाद साल दर साल उनके विचारों की भी हत्या होती रही हैं अभी कल, बापू की पुण्य तिथि पर, ख़बर है कि कुछ युवकों ने सार्वजनिक सभा कर के खुशी का इजहार किया, मिठाईयां बांटी वगैरह. सोशल मीडिया में गोडसे के बरसों पुराने अपराध को खुले तौर पर एक वीरोचित कदम ठहराने की बातें होती रही. मुझे सन् 1991 की एक ऐसी ही ख़बर याद हो आयी जब बापू की समाधि पर कुछ युवकों ने तोड़-फ़ोड़ की थी और मैंने बहुत क्षुब्ध हो कर एक कविता जैसा कुछ लिखने का प्रयत्न किया था. आज एक बार फिर मुझे वैसा ही महसूस हुआ है और उस ''कविता जैसे कुछ'' को मैं यहां साझा कर रहा हूं.
      
बापू,
कर चुके उद्धार का प्रण पूरा तुम?
ओढ़ा चुके ममता की चादर सर्वजन पर?
बस!
अब निर्रथक हो तुम
इस धरा के लिये मिथ्या, मिथक हो तुम!|
जाओ, और ढ़ूँढ़ो कोई नया भारत
जहां-
चिरनिद्रा तो तुम्हारी पूजनीय हो,
अगर था जीवन संघर्षरत |
ना, हम यहां सोने नहीं देंगे तुम्हें!
कलुषित राजनीति की आवाज़ें हैं अब हमारा मंगल गान,
तांडव करता है हमारे ह्रदयों मे
वैमनस्य,
और भावनाओं का अपमान |
श्रद्धा-सुमन, जो थे तुम्हारे लिये,
कुचल डालेंगे हमारे मदांध कदमों में
बस. . . अब ना बोलो, ना मुस्कुराओ !
हम नहीं चाहते कि,
विष-वृक्ष जो सींचा है हमने,
राख़ हो जाये तुम्हारी निश्चल मुस्कुराहट से;
हम नहीं चाहते कि,
हमारे नेत्रों को ढ़क सकने वाला अज्ञान का पर्दा
हटा पायें तुम्हारे हाथ;
हम घूमना चाहते हैं अभी भी,
लहू से रंगे, एक दूसरे के;
हम विचरना चाहते हैं अभी भी,
छिछली मानसिकता के जंगलों में;
तुम्हारी यह उजली सोच,
नहीं रह सकती अब,
हमारी कालिख़ पुती कोठरी में !
फिर दाग़ देंगीं तुम्हें , हम - यह तुम्हारी संतानें!
इसलिये बापू,
अब ढ़ूंढ़ लो कोई नया भारत
हां, अब ढ़ूंढ़ ही लो कोई नया भारत   
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