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Monday, July 06, 2020

तारबंदी


भारत में कोरोना लॉक-डाऊन की शुरुआती सफलता के बीच एक वर्ग ऐसा रहा जो राजनीतिज्ञों और क़रीब पूरे मध्यमवर्ग के राडार पर चमका ही नहीं. ये वर्ग था विस्थापित मज़दूरों का.
नतीजा ये कि जब आप और हम अपने घरों में बैठ कर समय बिताने की नयी युक्तियाँ ढूँढ रहे थे, तब मजबूर इंसानों का मानो एक ना रोका जा सकने वाला सैलाब हिन्दुस्तान के सभी कोनों में उमड़ रहा था. गंभीरता यहाँ तक पहुँची कि इस की कुछ लोगों ने सन् सैंतालिस से तुलना तक कर डाली.
अब स्थिति अपेक्षाकृत ठीक है पर फिर भी इस दौरान बहुत लोगों ने बहुत कुछ खोया है.
इस दौरान हमारी उपेक्षा और
इस त्रासदी पर ह्रदय के कुछ उद्गार एक कुछ लम्बी कविता की शक्ल में आपके समक्ष 













Sunday, January 31, 2016

बापू, ढ़ूँढ़ ही लो तुम कोई नया भारत!

महात्मा गांधी के प्रति, एक राष्ट्र के तौर पर हमारी उपेक्षा अब पूरी तौर पर कृतघ्नता में बदल चुकी है, ऐसा मुझे लगता है.  3० जनवरी 1948 को उनकी हत्या के बाद साल दर साल उनके विचारों की भी हत्या होती रही हैं अभी कल, बापू की पुण्य तिथि पर, ख़बर है कि कुछ युवकों ने सार्वजनिक सभा कर के खुशी का इजहार किया, मिठाईयां बांटी वगैरह. सोशल मीडिया में गोडसे के बरसों पुराने अपराध को खुले तौर पर एक वीरोचित कदम ठहराने की बातें होती रही. मुझे सन् 1991 की एक ऐसी ही ख़बर याद हो आयी जब बापू की समाधि पर कुछ युवकों ने तोड़-फ़ोड़ की थी और मैंने बहुत क्षुब्ध हो कर एक कविता जैसा कुछ लिखने का प्रयत्न किया था. आज एक बार फिर मुझे वैसा ही महसूस हुआ है और उस ''कविता जैसे कुछ'' को मैं यहां साझा कर रहा हूं.
      
बापू,
कर चुके उद्धार का प्रण पूरा तुम?
ओढ़ा चुके ममता की चादर सर्वजन पर?
बस!
अब निर्रथक हो तुम
इस धरा के लिये मिथ्या, मिथक हो तुम!|
जाओ, और ढ़ूँढ़ो कोई नया भारत
जहां-
चिरनिद्रा तो तुम्हारी पूजनीय हो,
अगर था जीवन संघर्षरत |
ना, हम यहां सोने नहीं देंगे तुम्हें!
कलुषित राजनीति की आवाज़ें हैं अब हमारा मंगल गान,
तांडव करता है हमारे ह्रदयों मे
वैमनस्य,
और भावनाओं का अपमान |
श्रद्धा-सुमन, जो थे तुम्हारे लिये,
कुचल डालेंगे हमारे मदांध कदमों में
बस. . . अब ना बोलो, ना मुस्कुराओ !
हम नहीं चाहते कि,
विष-वृक्ष जो सींचा है हमने,
राख़ हो जाये तुम्हारी निश्चल मुस्कुराहट से;
हम नहीं चाहते कि,
हमारे नेत्रों को ढ़क सकने वाला अज्ञान का पर्दा
हटा पायें तुम्हारे हाथ;
हम घूमना चाहते हैं अभी भी,
लहू से रंगे, एक दूसरे के;
हम विचरना चाहते हैं अभी भी,
छिछली मानसिकता के जंगलों में;
तुम्हारी यह उजली सोच,
नहीं रह सकती अब,
हमारी कालिख़ पुती कोठरी में !
फिर दाग़ देंगीं तुम्हें , हम - यह तुम्हारी संतानें!
इसलिये बापू,
अब ढ़ूंढ़ लो कोई नया भारत
हां, अब ढ़ूंढ़ ही लो कोई नया भारत   

Thursday, August 15, 2013

आज़ादी - हफ़ीज़ जालंधरी

आज जब देश आज़ादी की सड़सठवीं सालगिरह मना रहा है, मैं फिर अपने अंदर आशा और निराशा का एक तराजू पकड़े हुए समय को तौलने की कोशिश कर रहा हूँ. मैं यह निश्चय नहीं कर पाता कि हमारी आज़ादी कितनी और किन मायनों में सफल साबित हो पाई है. 

राजनीति के दिन-ब-दिन बढ़ते घपले, कॉर्पोरेट जगत का अंधा बाजारवाद, खेल के मैदानों मे पैसे की मारा-मारी, एंटेरटेनमेन्ट के नये बनते मापदंड, शासकीय और राजकीय उपेक्षा झेलता आम आदमी - इस सब नाटक को देख कर कभी कभी ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान में कुछ बारह - पंद्रह हजार लोगों का ऐसा  एक गिरोह है जिसके लिये हम सब इनकी सुविधानुसार और समयानुसार कभी दर्शक हो जाते हैं, कभी वोटर, कभी नौकरी मांगने वाले, कभी कन्सयूमरिस्ट मिडल क्लास या कभी कुछ और. पर जो कुछ भी होते  हैं, जाने-अनजाने रहते इनके रहम-ओ-क़रम पर ही हैं.

इस सब के चलते मुझे हफीज़ जालंधरी साहब की मशहूर रचना - आज़ादी- याद हो आई जो, मुझे लगता है, हमारे इस वक़्त का सही आईना है. यह रचना बहुत से ब्लॉगस् पर है, पर अपने यहां साझा करने का लोभ-संवरण नहीं कर पाया . कविता पढ़िये. और हां, स्वतंत्रता दिवस की बधाई!  - 


शेरों को आज़ादी है आज़ादी के पाबंद रहें
जिसको चाहें चीरें फाड़ें खायें पियें आनंद रहें

शाहीं को आज़ादी है आज़ादी से परवाज़ करे
नन्‍ही मुन्‍नी चिडियों पर जब चाहे मश्‍क़े-नाज़ करे

सांपों को आज़ादी है हर बस्‍ते घर में बसने की
इनके सर में ज़हर भी है और आदत भी है डसने की 
 

पानी में आज़ादी है घड़ियालों और नहंगों को
जैसे चाहें पालें पोसें अपनी तुंद उमंगों को

इंसां ने भी शोखी सीखी वहशत के इन रंगों से
शेरों, संपों, शाहीनों, घड़ियालों और नहंगों से

इंसान भी कुछ शेर हैं बाक़ी भेड़ों की आबादी है
भेड़ें सब पाबंद हैं लेकिन शेरों को आज़ादी है 
 

शेर के आगे भेड़ें क्‍या हैं इक मनभाता खाजा है
बाक़ी सारी दुनिया परजा शेर अकेला राजा है

भेड़ें लातादाद हैं लेकिन सबको जान के लाले हैं
इनको यह तालीम मिली है भेड़िये ताक़त वाले हैं 
 

मास भी खायें खाल भी नोचें हरदम लागू जानों के
भेड़ें काटें दौरे-ग़ुलामी बल पर गल्‍लाबानों के 
 

भेडि़यों से गोया क़ायम अमन है इस आबादी का
भेड़ें जब तक शेर न बन लें नाम न लें आज़ादी का

इंसानों में सांप बहुत हैं क़ातिल भी ज़हरीले भी
इनसे बचना मुश्किल है, आज़ाद भी हैं फुर्तीले भी 
 

सांप तो बनना मुश्किल है इस ख़स्‍लत से माज़ूर हैं हम
मंतर जानने वालों की मुहताजी पर मजबूर हैं हम

शाहीं भी हैं चिड़ियाँ भी हैं इंसानों की बस्‍ती में
वह नाज़ा अपनी रिफ़अत पर यह नालां अपनी पस्‍ती में

शाहीं को तादीब करो या चिड़ियों को शाहीन करो
यूं इस बाग़े-आलम में आज़ादी की तलक़ीन करो 
 

बहरे-जहां में ज़ाहिर-ओ-पिनहां इंसानी घड़ियाल भी हैं
तालिबे-जानओजिस्‍म भी हैं शैदाए-जान-ओ-माल भी हैं 
 

यह इंसानी हस्‍ती को सोने की मछली जानते हैं
मछली में भी जान है लेकिन ज़ालिम कब गर्दानते हैं 
 

सरमाये का जि़क्र करो मज़दूरों की इनको फ़िक्र नहीं
मुख्‍तारी पर मरते हैं मजबूरों की इनको फ़िक्र नहीं

आज यह किसका मुंह है आये मुंह सरमायादारों के
इनके मुंह में दांत नहीं फल हैं ख़ूनी तलवारों के 
 

खा जाने का कौन सा गुर है जो इन सबको याद नहीं
जब तक इनको आज़ादी है कोई भी आज़ाद नहीं 
 

ज़र का बंदा अक़्ल-ओ-ख़िरद पर जितना चाहे नाज़ करे
ज़ैरे-ज़मीं धंस जाये या बालाए-फ़लक परवाज़ करे

इसकी आज़ादी की बातें सारी झूठी बातें हैं
मज़दूरों को मजबूरों को खा जाने की घातें हैं 
 

जब तक चोरों-राहज़नों का डर दुनिया पर ग़ालिब है  
पहले मुझसे बात करे जो आज़ादी का तालिब है.

Sunday, January 23, 2011

पातळ अर पीथल


अभी जनवरी 29 को महाराणा प्रताप की पुण्य-तिथि है. 
महाराणा प्रताप की जीवनी तो मैंने कोर्स की किताबों में पढी है पर उनके देश-भक्ति के जज्बे को वाकई पढने के लिए मेरे विचार में राजस्थानी कवि कन्हैया लाल जी सेठिया की अति-लोकप्रिय वीर-रस की राजस्थानी कविता 'पातळ और पीथल" से बेहतर कुछ नहीं है.
सर्व-विदित है कि राणा प्रताप उन गिने-चुने (या शायद सिर्फ अकेले?) राजाओं में से थे जिन्होंने अकबर की दासता स्वीकार नहीं की थी और मेवाड़ को स्वतंत्र रखने के लिए जंगल-जंगल घूमना मंजूर किया था.  
इस प्रवास के दौरान एक कमजोर क्षण ऐसा आया जब अपने पुत्र अमर सिंह को रोटी के लिए बिलखते देखा तो अकबर को संधि-प्रस्ताव लिख भेजा. परन्तु अकबर के दरबार में नियुक्त कवि पीथल के प्रबल आह्वान ने उनके अन्दर के योद्धा को फिर जागृत कर डाला. कविता यही कहानी कहती है.     
बचपन में माँ के मुंह से सिर्फ सुनी इसकी पांच छः प्रमुख पंक्तियों ने मुझे कई सालों तक बांधे रखा पर बिना इन्टरनेट के उस जमाने में पूरी कविता कई सालों नहीं मिल पायी. आइये आज सम्पूर्ण कविता साझा करते हैं (आशा करता हूँ कि राजस्थानी भाषा आप समझ पाएंगे) : 


अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमरियो चीख पड्यो, राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
हूं लड्यो घणो, हूं सह्यो घणो
मेवाड़ी मान बचावण नै,
हूं पाछ नहीं राखी रण में
बैर्याँ री खात खिडावण में,
जद याद करूँ हळदीघाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूँ
जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूँ
भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
महलां में छप्पन भोग जका, मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाल्यां नीलम रै, बाजोट बिनां धरता कोनी,
"अै हाय जका करता पगल्या, फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया, हिंदवाणै सूरज रा टाबर"
- आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिखस्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,
मैं झुकूं कियां ? है आण मनैं
कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां ? हूं सेस लपट
आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूँ दिल्लीस तनैं समराट् सनेशो कैवायो।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो
कै आज हुयो सूरज सीतळ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो
आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,
बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै
रजपूती गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो
राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैर्यां रै मन रो कांटो हो बीकाणूँ पूत खरारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो
घावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो
राणा री हार बंचावण नै,
म्है बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?
मर डूब चळू भर पाणी में
बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो
तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपती खून रगां में है ?
जंद पीथळ कागद ले देखी
राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई
आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाळ संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं
राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं
आ बात सही बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो
स्याळां रै सागै सोवै लो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो
बादळ री ओटां खोवैलो;
म्हे आज सुणी है चातगड़ो
धरती रो पाणी पीवै लो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो
कूकर री जूणां जीवै लो
म्हे आज सुणी है थकां खसम
अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में
तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ नै राणा लिख भेज्यो आ बात कठै तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़तां ही
राणा री आँख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूँ कायर हूँ
नाहर री एक दकाल हुई,
हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं
मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूँ घोर उजाड़ां में भटकूं
पण मन में मां री याद रवै,
हूँ रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,
ओ सीस पड़ै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला,
पीथळ के खिमता बादल री
जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै
बा कूख मिली कद स्याळी नै?
धरती रो पाणी पिवै इसी
चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी
हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तलवार थकां
कुण रांड़ कवै है रजपूती ?
म्यानां रै बदळै बैर्यां री
छात्याँ में रैवैली सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकै लो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्याँ ऐंठ्योड़ी
लोही री नदी बहा द्यूंला,
हूँ अथक लडूंला अकबर स्यूँ
उजड्यो मेवाड़ बसा द्यूंला,
जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही। 
(चित्र http://blogs.rhsmith.umd.edu/ से)

Thursday, September 02, 2010

शांति पाठ

अभी कुछ दिन पहले मित्र राहुल झाम्ब ने अपने फेस-बुक नोट्स पर बाबा नागार्जुन की प्रसिद्द कविता - "मन्त्र-कविता ॐ"  लगाई थी.
इसे एक विरोधाभास (आप कविता पढेंगे तो जानेंगे, विरोधाभास क्यूँ) ही कहूँगा कि इस शानदार कविता ने मुझे वेदों में लिखे इस शांति-पाठ की याद दिला दी, जो कि सामान्यतः हिन्दू धर्म से ही जोड़ा जाता रहा है  - 
 
कुछ समय पहले एक कैलेंडर पर इसका भावार्थ पढ़ा, जो कि आप से बांटना चाहता हूँ. मुझे पता नहीं यह कितना प्रमाणिक है, और ना ही इस के उद्गम के बारे में मुझे पता है (आपको पता हो तो बताएं), पर इस को धर्म की संकरी गली से निकाल कर इंसानियत के चश्मे से पढ़ा जाये तो बहुत सुन्दर भाव है:

शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में, 
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में!

जल में, थल में, और गगन में,
अंतरिक्ष में, अग्नि-पवन में,
औषधि, वनस्पति, वन-उपवन में,
सकल विश्व में, जड़-चेतन में,
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में!

ब्राह्मण के उपदेश वचन में,
क्षत्रिय के द्वारा हो रण में,
वैश्य जनों के होवे धन में,
और शूद्र के होवे चरनन में,
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में!

शांति राष्ट्र-निर्माण, सृजन में,
नगर, ग्राम में और भवन में,
जीवन मात्र के तन में, मन में,
और जगती के हो कण कण में,
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में, शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में.

एक निवेदन - "और शूद्र के होवे चरनन में" के अर्थ के बारे में मुझे शंका है, हो सके तो बताएं.  

Sunday, August 01, 2010

कल शाम

बारिशों के धुले धुले, खुशनुमा मौसम में अपनी एक पुरानी कविता याद आयी है, सो लगा रहा हूँ -


कल शाम
जब प्रकृति मुस्कुराई थी,
जब बादल फट पड़े थे
अपने अंतर को उड़ेलते से
और यह हवा कुछ पगलाई थी.

याद है?
उन पत्तों पर तैरती बूंदों की रुनझुन
खिड़की के शीशे पर
पानी की एक बहती लकीर,
और हवा में तैरता भीगा सा मल्हार -
जब फुहारें आँगन में बिखर आयी थीं.

बरसाती मिटटी की वह सोंधी महक
रौशनी से खेल करता, वह नाचता कूदता कोहरा
व्योम के सीने पर चमकते, कौंधते बिजली के खंडग

छातों, बरसातियों के नीचे दबी ज़िन्दगी,
सब कुछ रेंगता सा, खिसकता सा
लेकिन खुशनुमा फिर भी.

कल शाम जब...

Sunday, November 01, 2009

Kaise Hota Hai

A young friend of mine recently passed away in a most unfortunate manner. 29 is no age to go, not by a cardiac arrest, not in any manner.

While at his funeral, I could not bear the sight of his father - helpless, desolate and apparently bereft of any emotions. Cheated by life, he seemed to me. I can not even imagine the hell he must be going through. I just wish & pray he and the whole family is able to pull themselves together and come out of this.

Curiously, at this time, I am also reminded about a poem I wrote 4 years ago about how when a child is born, s/he fills up, lights up our entire lives. I reproduce it below, with a strange hope that as times go by, happier memories would soften the cruel blow of destiny:

कैसे होता है?

कैसे होता है,
कि
मासूम हंसी का एक तार
सी देता है ज़िन्दगी के सारे पैबंद
और
एक मुस्कराहट भर के लिए
दम भरती है ज़िन्दगी
करती है - इंतज़ार

कैसे होता है
कि
बंजर दिल की ज़मीं को
तर कर देते हैं
सिर्फ दो नन्हे आंसू,
और उदास एक नज़र से
मानती है खुदाई भी हार

कैसे होता है
कि नन्हे दो हाथों में
उतर आता है
सारा आसमां
और
छोटे छोटे कदम
बन जाते हैं
आहट ज़िन्दगी की

कैसे होता है
कि
एक किलकारी भर से
होती है बसावट
पूरी ज़िन्दगी की!

(19.01.2004)

Good Bye JP.

Tuesday, March 10, 2009

होली है!

Here is wishing all of you a very Happy and, as it is politically correct to say now, safe Holi!
Below is a verse I wrote many years back, when me and my wife were still new to the city, with no friends, "celebrating" our first holi completely alone and away from home.
I remember both of us waited the whole day for somebody to come and play holi with us - unsuccessfully. At the end of the day, the acute feeling of being complete strangers found its expression thus:
मेरी बदरंग नीरसता के भीतर
आज फिर उग आया हैं
फागुन का सपनीला एक इन्द्रधनुष,
जिसके सात रंगों के पार
मैं देख रहा हूँ
बरसों पहले के, रंगों के बादल -
चटक लेकिन, आज भी!
सुन रहा हूँ
उल्लासित खिल्खिलाहटें हो-हुल्लड़!
महसूसता हूँ -
शीतल, आत्मीय फुहारें,
अंतस पर अपनें।
बीते बरसों की ये किरचें
आज फिर बैठ जाएँगी
चुपके से, पलकों की कोरों पर,
जिन्हें आज फिर,
रख दूँगा सहेज कर,
मन की दरक में,
और शामिल हो कर अनजानी भीड़ में,
पुकारूँगा ज़ोर से -
होली है !

Thursday, January 15, 2009

जाड़ा

I was rummaging through my old papers a couple of days back, when I came across one I wrote in December 1991. It is about winters, seen from three different perspectives.। I thought it might be relevant to share it with you now, while the famous "Dilli ki sardi"is here:
एक
जाड़ा
सिमटा सिमटा, सकपकाया सा,
घूमता बाहर कोठी के दालान में,
एयर-कंडीशनरों से, और शनील की रजाइयों से बचता बचाता,
शाम को इम्पोर्टेड व्हिस्की से लड़ने को प्रत्यनरत
खिड़कियों में ही अटका,
अन्दर आ पाने को बे-चैन यहाँ पर जाड़ा!
दो
जाड़ा
खुशनुमा
सुनाई पड़ता मूंग-फली के टूटे छिलकों में,
चिपटा गुढ की पापडी में,
पसरा हुआ आँगन ही की धुप ही के साथ
दादी माँ के चश्में में मुंह चिडाता,
शाम को, रसोई के अलाव के बाहर,
चाय के कप पर
भाप का बादल बन कर
उड़ता सा आ जाता है, जाड़ा
तीन
जाड़ा,
भयावह
ठंडी सड़कों पर पड़ा गुर्राता,
और कातर, नंगी एडियों को नोचता, खसोटता,
झपट पड़ता, पागल कुत्ते सा,
टूटे दरवाजे से, खिड़की की झिर्री से,
पैबंद लगे कपडों से आकर
नंगे, भूखे शरीरों को नोच खाता हैं
जाड़ा
I invite your comments.
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