Sunday, May 22, 2011

कितने पाकिस्तान - Kitne Pakistan

आज दूसरी बार कमलेश्वर का लिखा उपन्यास "कितने पाकिस्तान" पढ़ के चुका हूँ.

इसे जब मैंने पहली बार उठाया था तो शीर्षक से ऐसा लगा था कि विभाजन की त्रासदियों को बयान करती यह एक मार्मिक कहानी होगी. 

परन्तु असल में यह एक रोचक ताने बाने में गुंथा और बहुत पठनीय ऐतिहासिक शोध-कार्य है, जिसमें "पाकिस्तान" उन सभी देशों का प्रतीक है जो विश्व की भौगौलिक जमीन पर ही नहीं बल्कि मानस-पटल पर भी  नफरत की कलम से उकेरे गए हैं. यह उन सभी विचारधाराओं का प्रतीक है जो घृणा से संचालित होती हैं और विश्व को बांटती हैं. इस लिए इस का फलक बहुत विस्तृत है.

इस शानदार उपन्यास का नायक "समय" है, जो इतिहास की नदी को बहते, उसमें पात्रों को और घटनाओं को डूबते उतराते हुए देखता है - कानपुर का रेलवे स्टेशन, श्री राम द्वारा शम्बूक का वध, अहिल्या का बलात्कार,  मेसोपोटामिया का सम्राट गिलगमेश, आर्यों का भारत पर आक्रमण (?), कश्मीर, बोस्निया, बाबरी मस्जिद, जिन्ना, मौंटबेटन, अफगानिस्तान, औरंगजेब, टीपू, महाभारत, हिटलर, दारा शिकोह और न जाने क्या क्या और कहाँ कहाँ ........

परन्तु समय सिर्फ देखता नहीं, उस से एक कदम आगे बढ़ कर, इस विस्तृत कथा क्रम में चलते हुए, पाठकों की जानकारी के लिए उनसे और काल्पनिक घटनाओं और पात्रों से सवाल जवाब भी करता है, अनजाने घटनाक्रम खोलता है,  हर घटना के पीछे छिपे अन्याय और घृणा के कारणों का तार्किक विश्लेषण करता है और इस प्रक्रिया में कुछ स्थापित मान्याताओं पर प्रश्न भी उठाता है. 

और कथा शिल्प की सटीक दृष्टि से यह उपन्यास भी नहीं है. हिंदी के विद्वान् इस पर ज्यादा जानकारी रखते हैं पर मेरे विचार में यह एक ऐसा प्रयोग है जिसमे कहानी कहने की संभावनाएं एक उपन्यास से भी बहुत ज्यादा हैं.यह एक मंचित नाटक की तरह ज्यादा लगता है जिसमें समय के विस्तृत पटल पर व्यक्ति, देश, घटनाएं - सभी बारी बारी से आते हैं, अपनी बात कहते हैं और नेपथ्य में चले जाते हैं एक बार फिर बुलाये जाने के लिए. 

जैसे, बाबर के अदालती बयान की शुरुआत कुछ यूँ है  - 
"मेरा अल्लाह और तारीख गवाह है....मैंने कोई मंदिर मिस्मार नहीं किया और न मैंने हिंदुस्तान में कोई मस्जिद अपने नाम से बनवाई. इस्लाम तो हिन्दुस्तान में मेरे पहुँचने से पहले मौजूद था...क्या इब्राहीम लोधी खुद मुसलमान नहीं था जो आगरा के गद्दी पर बैठा हुआ था!...........
मैंने तो कभी तुलसीदास का नाम तक नहीं सुना, जिसने हिन्दुओं के राम को भगवान् बनाया. मेरे दौर में राम भगवान् थे ही नहीं तो मैं उनका मंदिर क्यूँ तोड़ता?.... अब सोचिये, उस वक़्त हिन्दुओं के कृष्ण को भगवान् और अवतार मंज़ूर किया जा चुका था. उनका जन्मस्थान मथुरा में था - मेरी राजधानी आगरा से सिर्फ पचास मील दूर....अगर मुझे तोडना ही होता तो मैं कृष्ण का जन्मस्थान न तोड़ता? भागा-भागा अयोध्या तक जाके राम का जन्मस्थान क्यों तोड़ता? क्योंकि राम तो भगवान् हुए तुलसीदास के बाद और मेरे सामने तुलसीदास बच्चा था. उसने रामायण मेरे मरने के बाद लिखी....
असल बात यह है अदीबे आलिया कि १८५७ की क्रांति के बाद अंग्रेजों की नीति बदली थी और उन्होंने मेरे वतन को मज़हब के नाम पर तकसीम करना शुरू कर दिया था. ...इसी के साथ बाबरनाम के वो पन्ने गायब किये गए जो इस बात का सबूत देते हैं  कि बाबर अवध में गया तो ज़रूर पर कभी अयोध्या नहीं गया!  

और ये है माउन्टबेटन से किये गए सवालों और जिरह में से कुछ:
'इस भारतवर्ष का पूरा इतिहास पलट जाइए और बताइये कि क्या कभी, किसी भी सदी में इसका विभाजन हुआ है?........तो फिर ऐसा क्यूँ हुआ कि अंग्रेजों की सौदागर कौम के हाथों, पांच हज़ार सालों पुराना यह महादेश अपने इतिहास में पहली बार विभाजन का शिकार हुआ! इसका कोई उत्तर है इस जहाजी माउन्टबेटन के पास?...
तुम कौन थे हमें आजादी देने वाले? तुमने हमारे देश को जीता नहीं था. दुर्भिसंधियों और षड्यंत्रों से अपने अधीन किया था...तब तुम्हारा खानदान शाही नहीं, लुटेरों और समुद्री डाकुओं को पालने वाला और शरण देने वाला अपराधी खानदान था!....
मैं इसी इतिहास लेखन के वारिस इन माउन्टबेटन साहब को, जो साबुत इंडिया के आखरी वाइसरॉय और विभाजित इंडिया के पहले गवर्नर जर्नल होने की अकड़ में जकड़े हुए हैं, मैं इन्हें इनके लुटेरे पुरखों विलियम हॉकिन्स और थोमस रो जैसो की असलियत दिखाना चाहता हूँ'.
तब अर्दली ने माउन्टबेटन को मुखातिब किया -
"जानते हैं आप! तब भारत के शहंशाह जहाँगीर के साम्राज्य के सामने आपके शाही खानदान की हैसियत एक गाँव के लम्बरदार से भी बड़ी नहीं थी! डच सौदागरों ने जब एक पौंड काली मिर्च का भाव पांच शिलिंग बढ़ा दिया था , तो तुम्हारी कौम के बनिए तिलमिला उठे थे...तब तुम्हारे बनियों ने सन 1559 में ईस्ट इंडिया ट्रेडिंग कंपनी बनाई थी. और तुम्हारा वह लुटेरा जहाजी विलिअम हॉकिन्स तुम्हारी तथाकथित महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम से लूटमार करने की इजाज़त लेकर चल पड़ा था.....
जब आप इस अदालत से वापिस जायें तो इस सच्चाई को तलाश कीजियेगा कि जिस वक़्त हिन्दुस्तान का मुगलिया निजाम अपने किसानों और काश्तकारों को राजा टोडरमल के चली आरही नीतियों के तहत मालिकाना हक और आजादी बक्श रहा था, उस वक़्त आपकी तथाकथित महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम, पुर्तगाली तस्करों के कंपनियों में पैसा लगा कर, अफ़्रीकी हब्शियों को दासों की तरह बेच कर खरीद-फरोख्त के बाज़ार में पैसा कमा रही थी!!


"कितने पाकिस्तान" निश्चय ही उन थोड़े से हिंदी उपन्यासों में से होगा जो विवेचन, शोध, विवेक और पठनीयता का अच्छा समागम हैं और इतिहास के पन्नों पर जमी काई को साफ़ कर के हमें हमारे इतिहास के सन्दर्भ में निर्देशांक तय करने में सहायक हैं. इस माने में यह नेहरु की "भारत - एक खोज" का समसामयिक हो सकता है पर उस से ज्यादा साहसी है और ज्यादा पठनीय भी. और हमारे अशांत समय के सवालों का जवाब तलाशने में ज्यादा मददगार भी.      

 आवरण पर दिए पुस्तक परिचय के अनुसार, "कमलेश्वर का यह उपन्यास मानवता के दरवाजे पर इतिहास और समय की एक दस्तक है... इस उम्मीद के साथ कि भारत ही नहीं, दुनिया भर में एक के बाद एक दूसरे पाकिस्तान बनाने की लहू से लथपथ यह परंपरा अब ख़त्म हो".

मेरा भी यही मानना है कि अगर आप इस उम्मीद से वाबस्ता हैं तो यह उपन्यास आप को अवश्य पसंद आएगा.    

2 comments:

Ankur said...

i found this novel in Delhi public library. then i think it will tell the interesting story about Pakistan & separation of India.
Truly when i read this novel i did not properly understand, i did not understand who is the main hero of this novel.
but after reading carefully i can say that this is "very good" novel.

Rahul Gaur said...

Dear Ankur
Thanks for writing in. Now that you have got the hang of the plot, I suggest you should read it. It is a marvelous book.
Knowing our history helps immensely.

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