Sunday, January 23, 2011

पातळ अर पीथल


अभी जनवरी 29 को महाराणा प्रताप की पुण्य-तिथि है. 
महाराणा प्रताप की जीवनी तो मैंने कोर्स की किताबों में पढी है पर उनके देश-भक्ति के जज्बे को वाकई पढने के लिए मेरे विचार में राजस्थानी कवि कन्हैया लाल जी सेठिया की अति-लोकप्रिय वीर-रस की राजस्थानी कविता 'पातळ और पीथल" से बेहतर कुछ नहीं है.
सर्व-विदित है कि राणा प्रताप उन गिने-चुने (या शायद सिर्फ अकेले?) राजाओं में से थे जिन्होंने अकबर की दासता स्वीकार नहीं की थी और मेवाड़ को स्वतंत्र रखने के लिए जंगल-जंगल घूमना मंजूर किया था.  
इस प्रवास के दौरान एक कमजोर क्षण ऐसा आया जब अपने पुत्र अमर सिंह को रोटी के लिए बिलखते देखा तो अकबर को संधि-प्रस्ताव लिख भेजा. परन्तु अकबर के दरबार में नियुक्त कवि पीथल के प्रबल आह्वान ने उनके अन्दर के योद्धा को फिर जागृत कर डाला. कविता यही कहानी कहती है.     
बचपन में माँ के मुंह से सिर्फ सुनी इसकी पांच छः प्रमुख पंक्तियों ने मुझे कई सालों तक बांधे रखा पर बिना इन्टरनेट के उस जमाने में पूरी कविता कई सालों नहीं मिल पायी. आइये आज सम्पूर्ण कविता साझा करते हैं (आशा करता हूँ कि राजस्थानी भाषा आप समझ पाएंगे) : 


अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमरियो चीख पड्यो, राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
हूं लड्यो घणो, हूं सह्यो घणो
मेवाड़ी मान बचावण नै,
हूं पाछ नहीं राखी रण में
बैर्याँ री खात खिडावण में,
जद याद करूँ हळदीघाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूँ
जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूँ
भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
महलां में छप्पन भोग जका, मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाल्यां नीलम रै, बाजोट बिनां धरता कोनी,
"अै हाय जका करता पगल्या, फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया, हिंदवाणै सूरज रा टाबर"
- आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिखस्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,
मैं झुकूं कियां ? है आण मनैं
कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां ? हूं सेस लपट
आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूँ दिल्लीस तनैं समराट् सनेशो कैवायो।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो
कै आज हुयो सूरज सीतळ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो
आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,
बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै
रजपूती गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो
राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैर्यां रै मन रो कांटो हो बीकाणूँ पूत खरारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो
घावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो
राणा री हार बंचावण नै,
म्है बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?
मर डूब चळू भर पाणी में
बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो
तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपती खून रगां में है ?
जंद पीथळ कागद ले देखी
राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई
आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाळ संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं
राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं
आ बात सही बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो
स्याळां रै सागै सोवै लो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो
बादळ री ओटां खोवैलो;
म्हे आज सुणी है चातगड़ो
धरती रो पाणी पीवै लो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो
कूकर री जूणां जीवै लो
म्हे आज सुणी है थकां खसम
अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में
तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ नै राणा लिख भेज्यो आ बात कठै तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़तां ही
राणा री आँख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूँ कायर हूँ
नाहर री एक दकाल हुई,
हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं
मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूँ घोर उजाड़ां में भटकूं
पण मन में मां री याद रवै,
हूँ रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,
ओ सीस पड़ै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला,
पीथळ के खिमता बादल री
जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै
बा कूख मिली कद स्याळी नै?
धरती रो पाणी पिवै इसी
चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी
हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तलवार थकां
कुण रांड़ कवै है रजपूती ?
म्यानां रै बदळै बैर्यां री
छात्याँ में रैवैली सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकै लो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्याँ ऐंठ्योड़ी
लोही री नदी बहा द्यूंला,
हूँ अथक लडूंला अकबर स्यूँ
उजड्यो मेवाड़ बसा द्यूंला,
जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही। 
(चित्र http://blogs.rhsmith.umd.edu/ से)

6 comments:

Anonymous said...

Really a wonderful poem, enjoyed thoroughly.
S V Bhatt

Anonymous said...

Nice poem, ThanQ. I would have enjoyed it better if I could hear you recite it. Nice reading it on Republic Day.
C V Bhatt

jyoti said...

a powerful poem with graet message
shankar chaudhary

shankar chaudhary said...

jai hind jai rajasthan jai mewar

chetan said...

REGARDING CORRECTION
dear sir ! its great to read this here again after a long time ...... thanks a lot ...

one correction I would like to attract ur attention on , is:-

राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच - बांच नै फिर बांच्यो,


"बांच - बांच"

Rahul Gaur said...

Chetan
Thanks for your visit. Yes, this is a mistake, thanks for reminding.

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