शीबा असलम फहमी स्त्री-विमर्श और मुस्लिम सरोकारों को शिद्दत से उठाने वालीं एक सशक्त युवा लेखिका हैं. प्रसिद्ध साहित्यिक मासिक "हंस" के जुलाई २०११ अंक में इनका लेख "खजूर की ग़ुलामी " छपा है जो कि एक बहुत ही साहसिक, विचारोत्तेजक और सारगर्भित लेख है जिस के लिए शीबा साधुवाद की पात्र हैं. इस लेख विशेष में उन्होंने दुनिया के हर कोने में फैले मुस्लिम की पहचान की दुविधा और उनके होने के सच का जवाब तलाशने की एक बहुत इमानदार कोशिश की है और तीन-चार पन्नों में एक ऐसी अंतर्दृष्टि दी है जो, मेरी सीमित जानकारी और पठन के अनुसार, लोग-बाग़ मोटी-मोटी पुस्तकों में समेट नहीं पाए हैं. सारे विश्व में फैले मुस्लिम उलेमाओं को तो यह वाकई समझ जाना चाहिए कि इस्लामी शुद्धिकरण का नारा कुछ सीमित लोगों का राजनैतिक उद्देश्य तो शायद पूरा करता है पर एक आम मुसलमान के लिए वह एक ख्वाब-गाह से ज्यादा कुछ नहीं है. उस आम मुसलमान के लिए ज्यादा ज़रूरी है उस ज़मीं से जुड़ना, जहाँ वह रह रहा है और उस संस्कृति को, भाषा को आत्मसात करना. शीबा सही कहती हैं - "जबान के मामले में अल्लाह का हाथ तंग नहीं है".
इस ब्लॉग पर आपसे बाँट लेने की अनुमति के लिए हंस और शीबा जी को धन्यवाद सहित यह लेख आप की नज़र:
मुस्लिम बुद्धिजीवियों, आप थक नहीं जाते सफाई देते देते? कि "जेहाद" का मतलब खून-खराबा, हर ग़ैर-मुस्लिम से जंग, बैठे बिठाये शांति-भंग कर इस्लाम का विस्तार नहीं है?
आप थक नहीं जाते यह बताते बताते कि "मुजाहिद" का मतलब गुरिल्ला युद्ध करने वाला, आतंकवादी, लड़ाका नहीं है?
आप थक नहीं जाते यह बताते बताते कि "तालिबान" का मतलब इल्म / ज्ञान की तलब / ख्वाहिश रखने वाले शागिर्द आदि हैं न कि ए.के.-४७ से लैस, ट्रिगर-हैप्पी नीम-जंगली जंगजू?आप थक नहीं जाते यह बताते बताते कि इस्लाम में अवाया, बुर्का,जिलबाब, नक़ाब नहीं, बस खुद को नुमाईश की वस्तु बनने से रोकने का मशवरा है?
आप थक नहीं जाते सफाई देते देते कि इस्लाम में "त्वरित तलाक" नहीं है?
आप थक नहीं जाते चीख़ चीख़ कर कि इस्लाम "अमन" का पैग़ाम देता हैं, न कि जंग का?
ऐसा क्यूँ है कि मुसलमान होने का मतलब ही "मिस-अन्डरस्टुड" होना है ? क्यूँ दुनिया हमें ही "समझ" नहीं पा रही है? क्यों दुनिया को हमसे और हमें दुनिया से यह शिकायत लगातार जारी है ? हम एक पहेली या "पज़ल" क्यों हैं? आखिर हम इसी दुनिया में जीते हैं, वही खाते पहनते हैं, वही दीखते हैं, वही गरीबी-अमीरी, पीड़ा-बीमारी, दोस्ती-दुश्मनी, ज़िन्दगी-मौत, आपदा-सम्पदा, सब कुछ वैसे ही भोगते हैं जैसे ग़ैर-मुस्लिम; तब हम ही क्यों अपने विश्वास-आस्था-अक़ीदे को ले कर ग़लतफहमी का शिकार हैं? जिसे आपके "दुश्मन" आपके ख़िलाफ बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं? और भी तो धर्म-विश्वास हैं इस दुनिया में - ईसाई, यहूदी, हिन्दू, बौद्ध - वह तो दुनिया के लिए ऐसी जानलेवा पहेली नहीं बने कभी? उनके विश्वास के कई पहलुओं की प्रशंसा-निंदा तो हो सकती है लेकिन यह जो शब्द-सन्दर्भ-व्याख्या का अबूझ ताना-बाना है, वे इसका शिकार नहीं हैं . हिन्दू धर्म का एक हिस्सा "मनु-स्मृति" जिसे एक काले अध्याय के रूप में देखा जाता है, उसकी निंदा होती है लेकिन व्याख्या-सन्दर्भ का अबूझ "फ्री-फॉर-ऑल" मामला नहीं बनता. ईसाई धर्म के "सेवा" के महत्त्व का मामला भी यही है, कोई कन्फ्यूज़न नहीं . सेवा मतलब सेवा! लेकिन हम मुसलमान हैं कि इस्लाम, सलाम, अज़ान, नमाज़" जैसे विशुद्ध परोपकारी कांसेप्ट को भी विवादों से नहीं बचा पा रहे हैं. आखिर ऐसा क्यों है कि "ग़लतफ़हमी का शिकार" होने का कॉपीराइट मुसलामानों के ही पास है? इसी कड़ी में "पश्चिम के हाथों बेवकूफ बनने का विशेषाधिकार' भी हमारे पास ही सुरक्षित क्यों है?
कुल मिला कर जब इस्लाम को समझना ही मुद्दा बन गया है सारी दुनिया के सामने और खुद मुसलमान के सामने, तो समझाने के लिए जो सबसे ज़रूरी दो टूल हैं वह हैं - भाषा और आचरण. और इन दोनों को ही मुसलामानों ने बखूबी इस्तेमाल करने के बजाय गिरवी रख दिया है सउदी अरब की भाषा संस्कृति की गुलामी के चलते. सउदी अरब की भाषा, वेश-भूषा, खान-पान, रीति-रिवाज़ को "दीन-इस्लाम" का पर्याय मान कर इस्लाम का बेड़ा ग़र्क हो रहा है. अजीब विरोधाभास है एक तरफ माना जाये तो इस्लाम तो सारी दुनिया के लिए आया है. कोई नस्ल हो , कोई तहज़ीब, कोई आब-ओ-हवा (जलवायु), कोई भू-भाग, कोई ज़बान या कोई भी समय......अल्लाह की वाणी कुरान उपरोक्त सभी आयामों को समेटे है और उनके जवाब देने में सक्षम है. और यह भी है कि इस्लाम सिर्फ एक अध्यात्मिक विश्वास नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति है. यानी कि इस दुनिया में ज़िन्दगी कैसे गुजारी जाए; सियासत, तिजारत, घरेलू सम्बन्ध, सामाजिकता, आर्थिक सम्बन्ध , क़ानून व्यवस्था आदि सभी पर कुरान एक व्यवस्थित मार्ग-दर्शन देती है.
इतने व्यापक अर्थों में इस्लाम के सन्देश का दावा प्रस्तुत करने वाला समूह जब अपने ही दावे के विरोध में जा कर एक ख़ास जुगराफ़िया में पैबस्त तहज़ीब-भाषा-व्यवस्था को अपना "आदर्श-ढांचा" मान लेती है तो न वह इधर की रहती है, न उधर की. उसके उपरोक्त प्रस्तुत दावे जो आदि से अनादि को समेटे हैं, उतने ही खोखले हो जाते हैं जितने कि मुसलमानों के आज हैं. लिहाज़ा इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अज़ान, नमाज़, ख़ुतबा, आदि समर्पण, परोपकार की बातें करतें हैं, जेहाद-मुजाहिद-तालिबान का क्या मतलब होता है या इस्लाम का मूल सन्देश अमन है, क्यों कि इस भाषा-व्याख्या की तकनीक में कोई जायेगा नहीं और खुद आप उस क्लासिकल-अरबी को अपनी आम भाषा में तब्दील करेंगे नहीं, जिस से हर कोई समझ सके.
ज्यादा फ़िक्र की बात यह है कि अरबी भाषा संस्कृति की गुलामी कम होने के बजाय बढ़ी है. सच्चाई यह है कि एक-दो प्रतिशत को छोड़ कर पूरा मुस्लिम समाज अज़ान, नमाज़, कुरान, हदीस, फिकह को लेकर एक भेड़-बकरी का समूह मात्र है. इसमें क्या कहा जा रहा है वह जानता ही नहीं, जिसका फायदा मौलाना, इमाम, आलिम उठाते हैं. वे खुद को अल्लाह के अधिकृत एजेंटों की तरह प्रस्तुत कर पूरे मुस्लिम समाज को हांक रहे हैं. हालत यह है कि जो मतलब-व्याख्या मौलाना-आलिम अपनी निजी राय, व्याख्या, विश्वास, पूर्वाग्रह के साथ आम मुसलमान तक पहुंचाते हैं, वही इतने बड़े समूह के लिए अल्लाह का कलाम बन जाती है.
कई सौ सालों तक "बाइबिल" भी ऐसी ही गुप्त भाषा में दर्ज "ब्रह्म-वाक्य" बनी रही, जिसके नतीजे में पोप और राज-सत्ता ने मिलकर ऐसी जघन्य-आपराधिक-व्यभिचारी व्यवस्था को जन्म दिया था जिसे इतिहास में "डार्क-एजेस" यानी अँधा-युग कहते हैं, और जिसका खात्मा बाइबिल को आम भाषा में अनुवाद कर के, जन-सुलभ बना कर मार्टिन लूथर किंग ने किया था.
यदि कोई शिलालेख, दिव्य-वाणी या ग्रन्थ अभी इसी समस्या से दो-चार है कि उसे समझा ही नहीं गया तो कैसे उस पर व्यापक चर्चा और आम-समझ मुमकिन है? यही कारण है कि कुछ ग़ैर-अरब मुस्लिम समाजों ने अज़ान-नमाज़ को मुक़ामी ज़बानों में तर्जुमा कर लिया है जिस से उसे पढने-सुनने वाले समझ सकें कि आखिर उनके लिए इसमें क्या सन्देश है.
लेकिन अधिकतर मुस्लिम दुनिया में अभी इस तरह की पहल पर संजीदा गौर-फ़िक्र नहीं हो रही है.
जहाँ तक उन समाजों का सवाल है जो कि गरीबी के चलते रोज़गार और आर्थिक सहयोग के लिए पेट्रो-डॉलर कमाने खाड़ी देशों में गए, उनके यहाँ अरबी संस्कृति को अपनाने का रुझान साफ़ दिख रहा है. उनकी महिलाएं अरबी तर्ज़ का "अबाया-बुर्क़ा" पहनने लगीं, मर्दों में जुब्बानुमे कुरते, दाढी का फैशन बढ़ा, उनके नए आलिशानों मकानों में खजूर के पेड़ लगाये गए. लेकिन इनसे सबसे बढ़ कर इनकी भाषा अरबी-ज़दा हो गयी जो कि एक तहज़ीबी इन्तेक़ाल है.
भारतीय उपमहाद्वीप के देशों के मुसलमान, जो कि मुख्यतः गरीबी के चलते खाड़ी में मजदूरी करने गए थे, वे अपने अरबी मालिकों की पेट्रो-डॉलर वाली शान-औ-शौकत से अभिभूत हो कर उनकी "बैड फोटोकॉपी" बनने की कोशिश में अपने समाज में भी विदेशी दिखने लगे.
इस सबका असर यह हुआ कि भारत की मुस्लिम तहज़ीब जो कि मुख्यतः फ़ारसी व अन्य मध्य-एशियाई संस्कृति से प्रभावित रही थी, अब एक अरबी हमले का शिकार है. "ख़ुदा-हाफ़िज़" को "अल्लाह-हाफ़िज़" से, "नमाज़" को "सलात" से, "रमजान मुबारक" को "रमदान करीम" से, "ईद मुबारक" को "ईद-सईद" से, "खुशामदीद" को "अहलन-वा-सहलन" से, शुकरन जैसे अरबी शब्दों से रिप्लेस करने की होड़ है.
आर्थिक कारणों के अलावा, वहाबीकरण ने भी मुसलमानों को अरबी संस्कृति से जोड़ा है. कुल मिला कर जिसका नतीजा एक अलग पहचान के रूप में उभर रहा है और अरबी समाज की कुछ नयी जघन्यताएं भी ऐसे वर्गों में उभरी हैं, खासकर महिलाओं के प्रति.
मुसलमानों को अगर यह आम शिकायत थी कि उनके दीन की अमन, सुलह, मैत्री-पूर्ण शिक्षाओं के प्रति दुनिया भर में गलत-फहमी पैदा करवाई जा रही है और "ईसाई-पश्चिम" द्वारा उन्हें आपस में, और दूसरों से भी लडवाया जा रहा है, तो ऐसे में खुद मुसलमानों को क्या करना चाहिए था? दुश्मन की साज़िश में सहयोग या उसके विरूद्ध मुहिम चला कर उसकी साज़िश फेल करने की जद्दो-ज़हद?
ग़ैर-अरब तीसरी दुनिया के मुसलमान अपने-अपने स्थानीय संस्कृति-भाषा में सही इस्लाम को "बोल" कर ही तो जेहाद, मुजाहिद, तालिबान, शरियत जैसे भारी-भरकम और "मिस-अंडरस्टुड" शब्दों को "साफ़" कर सकते थे.
मलयाली, तमिल, कन्नड़, कोंकणी, मराठी, गुजराती, उर्दू, हिंदी बोलने वाले मुस्लिम-ग़ैर-मुस्लिम को अगर पता हो कि दिन में पांच बार जो आवाज़ मस्जिद से उठती है उसमें क्या कहा जा रहा है, तो क्या इस्लाम का उस से नुक्सान हो जाएगा? या फायदा होगा? जुम्मे के ख़ुतबे, नमाज़, इबादत अगर अपनी भाषा में हो तो उस से सभी का केवल फायदा होगा. नुक्सान सिर्फ अल्लाह मियां के स्व-घोषित एजेंटों का होगा, जिन्होंने दूसरे पुरोहित-पादरियों की तरह खुद को दिव्य-वाणी को आम-जन तक पहुंचाने वाला प्रोफेशनल साबित कर रखा है. लिहाज़ा वे ऐसा होने नहीं देंगे और मेरे जैसे लोगों को भटका हुआ साबित करने में अपनी सारी ताक़त झोंक देंगे.
मुसलमानों का यह तर्क अब बहुत पिलपिला और बे-असर है कि इस्लाम को समझा नहीं गया या उसे अमरीका पोषित जंग-जू ले उड़े. क्यों कि खुद बुद्धि-जीवी, शिक्षित मुस्लिम वर्ग भी व्याख्या की भूल-भुलैय्या को कट-शॉर्ट कर पूरे मामले को सीधी, साफ़, जनोपयोगी और परोपकारी भाषा-समझ दे और उस में से कुछ उहा-पोह की स्थिति बने तो उन्हें पूरी तरह निरस्त किया जाए तो ही बात बनेगी.
"इस्लाम इंसानियत की ख़िदमत के लिए आया है, दुनिया को बेहतर और जीने लायक बनाने के लिए", यह साबित कीजिये आम-फहम ज़बान और तालीम में. यह आप ही की जिम्मेदारी है. दुनिया से यह उम्मीद मत कीजिये कि वह आँखों-देखी मक्खी निगले और खुद मेहनत करे यह समझने और आप को भी समझाने में कि "जेहाद" शब्द का अर्थ अपने निजी आचार-विचार में व्याप्त बुराइओं से लड़ना है, न कि दीन की रक्षा में किया गया युद्ध. विरोधाभासी और अरबी भाषा में लिखी हदीसों ने मामले को वैसे भी बहुत बिगाड़ा है. अब आप इस अरबी भाषा-व्याख्या की भूल-भुलैय्या से मुक्ति पाइए, विरोधाभासी हदीसों को नकारिये और अपनी मादरी-ज़बान में ही अल्लाह की बात सब तक पहुंचाइए. यकीन कीजिये, जैसे वह आपकी अपनी ज़ुबान में दुआ-फ़रियाद सुन लेता है, कबूल कर लेता है, वैसे ही आपकी इबादत भी समझ लेगा. ज़बान के मामले में उस का हाथ तंग नहीं है.
सउदी अरब के बाशिंदे (जिनमें पैगम्बर साहब भी शामिल हैं) अपने प्रदेश की उपलब्ध जल-वायु, मौसम, उपज और आहार के मुताबिक़ जीवन जिए. ऐसा नहीं था कि उन्होंने आम-संतरे-सेब नकार कर खजूर के फल को चुना. वे अपने प्रदेश की प्रकृति या कुदरत के मुताबिक़ जिए. लेकिन आज मुसलमानों में अन्धास्था की हालत यह है कि एक मुसलमान शक्कर का मरीज भी इस आस्था में खजूर जैसा शक्कर से भरपूर फल यह कह कर खा लेता है कि "यह तो सुन्नत है, इस से उसकी बीमारी नहीं बिगड़ेगी." क्या बेवकूफी है!