Sunday, August 01, 2010

कल शाम

बारिशों के धुले धुले, खुशनुमा मौसम में अपनी एक पुरानी कविता याद आयी है, सो लगा रहा हूँ -


कल शाम
जब प्रकृति मुस्कुराई थी,
जब बादल फट पड़े थे
अपने अंतर को उड़ेलते से
और यह हवा कुछ पगलाई थी.

याद है?
उन पत्तों पर तैरती बूंदों की रुनझुन
खिड़की के शीशे पर
पानी की एक बहती लकीर,
और हवा में तैरता भीगा सा मल्हार -
जब फुहारें आँगन में बिखर आयी थीं.

बरसाती मिटटी की वह सोंधी महक
रौशनी से खेल करता, वह नाचता कूदता कोहरा
व्योम के सीने पर चमकते, कौंधते बिजली के खंडग

छातों, बरसातियों के नीचे दबी ज़िन्दगी,
सब कुछ रेंगता सा, खिसकता सा
लेकिन खुशनुमा फिर भी.

कल शाम जब...

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