पिछली किस्त से जारी.
भेंट वाला चक्कर आप की समझ में नहीं आया होगा - आप के वहाँ इंडियन एक्सप्रेस नहीं आता क्या? पिछले सालों से ऐसी ही एक भेंट का काफी चक्कर चला है.
खैर, मैं बताता हूँ.
आपके समय में न्याय मांगने वालों की भीड़ लगी रहती थी, आप भी परेशान रहते थे (उस समय आप कितने दुबले हो गए थे). अब ऐसा चक्कर ख़त्म.
भीड़ तो अब भी रहती है - नारे लगाती भीड़, चीखती भीड़, लेकिन आप पीछे के दरवाजे से भेंट चढ़ाव और हाथों-हाथ न्याय मिलता है (इस न्याय की विशेषता यह है कि यह हमेशा आप के हक में रहेगा - बशर्ते सामने वाली पार्टी ताक़तवर न हो).
पासपोर्ट बनवाने से लेकर गैस का कनेक्शन लेने तक, बच्चों का स्कूलों में दाखिला करने से लेकर उनको नौकरी लगवाने तक सब इसी भेंट की माया है. "दाम में दम, काम में दम" वाली उक्ति यहाँ चरितार्थ होती है.
पत्र शायद लम्बा हो गया है, लेकिन इतना समय भी कभी कभी ही निकल पाता है. और फिर, आप सा सुनने वाला भी कहाँ मिलेगा!
आज घर बैठा हूँ, बाहर कर्फ्यू लगा हुआ है. आशा है आपके वहाँ इस किस्म के खेल कूद नहीं होते होंगे. कर्फ्यू का भी एक अलग ही एक्सपेरिएंस है भगवन - पुलिस स्टेशन से पुलिस और छावनियों से फौज को उठा कर अशांति वाले इलाकों में भेज दिया जाता है कि जाओ जंग करो, यहाँ बैठे बैठे जंग मत खाओ. अगर बाहर किसी से नहीं लड़ सकते तो अन्दर ही लड़ के अपनी भड़ास निकालो.
तो कवायद सड़कों पर होती है, चौराहों पे होती है - आम आदमी को बाहर निकलने की इजाज़त नहीं होती, राशन नहीं मिलता, दवाइयां नहीं मिलती. लेकिन बंदूकों के साए में शांति स्थापित हो जाती है, फिर कर्फ्यू-ग्रस्त क्षेत्र से कहा जाता है कि यहाँ पूर्ण शांति है. यह अशांति भी हमारे राजनीतिज्ञ ही करवाते हैं - पुलिस, फ़ौज और प्रशासन को समय-समय पर टाईट करते रहने के लिए.
बाकी कुछ विशेष नहीं है - वैसा ही जैसा पिछले 45 सालों से चल रहा है - राशन की दुकानों पर वही लम्बी कतारें हैं; भूखा आदमी वैसे ही आश्वासन और खून के घूँट पी रहा है.
ज्यादा आबादी हमें करनी नहीं है, इस लिए 15 लाख से ज्यादा बच्चे 5 साल की उम्र से पहले भूख और बीमारी से मर रहे हैं.
पड़ोस वाले समाज सुधारक लाला जी का नौकर अभी भी रोज शाम को नियम से मार खाता है, फिर भी उनसे ही चिपटा रहता है.
टी.वी. पर वही मुस्कुराते चेहरे भारत माता के गाने गाते हैं, भारत को महान बताते हैं और स्टीकर पर चिपकी यह महानता ऑटो-रिक्शा पर टंगी घूमती है.
नन्हे, झुर्रियों भरे हाथ स्लेट - पेंसिल छोड़ कर कप-प्लेट धोते हैं.
रम्भा और मेनका के अनगिनत विकृत रूप आज भी नारी-सुधार के भाषणों तले दबते हैं.
बूढा किसान एक अंगूठे के जरिये अपनी किस्मत जमींदार के यहाँ गिरवी रखता है और लहलहाती फसल के सूखे डंठलों को बटोर कर बेटी की शादी करता है.
बाबू अपनी टूटी साइकिल पर "ब्लैक" की गैस का सिलिंडर लाता है.
जनता को आराम देने के लिए अभी भी काम रुकता है - हडतालें होती हैं, पहले गोरे सिपाहियों की लाठी खाते थे, अब हमारे अपने जवानों की. आखिर, प्रभु, स्वदेशी में ही सबका भला है - अपने महात्मा जी कह गए हैं.
आप भी बंट गए है - आपको अजीब लगेगा लेकिन ऐसा हो गया ही. अपने लेवल पर आप सब भी अपने-२ चार्ज बाँट लीजियेगा.
(जारी)
पहली किस्त - एक पत्र भगवान् के नाम - १
दूसरी किस्त - एक पत्र भगवान् के नाम - २