भारत में कोरोना लॉक-डाऊन की शुरुआती सफलता के बीच एक वर्ग ऐसा रहा जो राजनीतिज्ञों और क़रीब पूरे मध्यमवर्ग के राडार पर चमका ही नहीं. ये वर्ग था विस्थापित मज़दूरों का.
नतीजा ये कि जब आप और हम अपने घरों में बैठ कर समय बिताने की नयी युक्तियाँ ढूँढ रहे थे, तब मजबूर इंसानों का मानो एक ना रोका जा सकने वाला सैलाब हिन्दुस्तान के सभी कोनों में उमड़ रहा था. गंभीरता यहाँ तक पहुँची कि इस की कुछ लोगों ने सन् सैंतालिस से तुलना तक कर डाली.
अब स्थिति अपेक्षाकृत ठीक है पर फिर भी इस दौरान बहुत लोगों ने बहुत कुछ खोया है.
इस दौरान हमारी उपेक्षा और
इस त्रासदी पर ह्रदय के कुछ उद्गार एक कुछ लम्बी कविता की शक्ल में आपके समक्ष
नतीजा ये कि जब आप और हम अपने घरों में बैठ कर समय बिताने की नयी युक्तियाँ ढूँढ रहे थे, तब मजबूर इंसानों का मानो एक ना रोका जा सकने वाला सैलाब हिन्दुस्तान के सभी कोनों में उमड़ रहा था. गंभीरता यहाँ तक पहुँची कि इस की कुछ लोगों ने सन् सैंतालिस से तुलना तक कर डाली.
अब स्थिति अपेक्षाकृत ठीक है पर फिर भी इस दौरान बहुत लोगों ने बहुत कुछ खोया है.
इस दौरान हमारी उपेक्षा और
इस त्रासदी पर ह्रदय के कुछ उद्गार एक कुछ लम्बी कविता की शक्ल में आपके समक्ष
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