Sunday, November 20, 2011

Rockstar - The flight of an innocent bird

Rock is not just any music, as my music-literate friends like Puneet and Rahul J tell me. More than being just another genre of music, it is a middle-finger-up attitude, with a capital A, towards life.
Rockstar, the latest Ranbir Kapoor starrer directed by Imtiaz Ali, is my sneak-peek into this world of angst-and-anger-ridden music, what if slightly cosmetic and with some Bollywood cinematic license. And it  rocks!

It is the story of how a simple Delhi boy Janardhan, desperate to become a famous singer like Jim Morrison, almost invents a faux heart-ache to bring pathos in to his singing quality. The heart-ache, however, becomes painfully real and permanent, leading him to embrace music and become extremely famous in his avatar of Jordan but the fame comes to him at the cost of his family, turning him in to a recluse and a loner.
The film rides on Ranbir Kapoor, who has played the protagonist really well. He has carried off the  transition from an awkward, middle-class boy to a famous rock star in a very convincing manner, with the core of his character and his attitude remaining intact till the end. Good characterization, this. From this film onward, Ranbir is firmly in the superstar race.
Nargis, the lead actress, is contrived in the first half but manages to somewhat hold up the act post-interval. All character actors, though, are good, specially Khatana Ji, the wannabe friend-philosopher-guide to the tormented Janardhan.
The other high point of the film is its music by AR Rahman, who has thankfully not lost his ability to surprise us. The songs are all beautiful, although Sadda Haq, the one song which I very much liked initially, does not have much relevance in the film and looks like a patchwork. There is apparently no justification for the protagonist's connection with such save-the-world kind of issues.
Backed by some very imaginative & well-executed editing, the story easily flits back and forth on a time-line. For some, the latter half may be a tad intense and even slightly negative but I think it is this ending which makes it a well-rounded film, bringing the required pathos and  gravitas to the film.
One more thing. Being associated with rock music, Rockstar elicits an inevitable comparison with the other successful, Farhan starrer Rock On. But while Rock On was about the journey of a band and male bonding, Rockstar is all about this one person, whose journey to the core of his own heart is more important than anything else. And who, after all, wants to fly back to his roots - "Ae Naadan Parinday...ghar aaja..."
Like the Rumi he quotes - "Beyond the notions of right and wrong, lies a field (of nothingness)....I shall meet you, o my beloved, there...."
A must watch.  

Saturday, November 05, 2011

Game Over: The Debacle of Ra-One


Does only SFX a fine film make?
I asked this myself when I was enduring the much-hyped, Rajni-starrer, Robot. And I have asked this again while watching Ra-One, the latest, special-effects laden, game-come-alive film from Shahrukh Khan.
No! remains my answer. Not even if the box-office figures shout a never-before collection.
A good restaurant is primarily about good food. Ambience and service can only serve to complement the food quality, not substitute it.
So it is with a film, what if it is Bollywood.  A story well-told is what a film is mainly about, not the special effects, certainly not a conceited superstar who thinks he can carry off anything. This is no 70s and he is no AB.     
Everybody and his aunt can, by this time, guess what this movie’s story line is – a video game gone real, with the game characters fighting it out in the real. Ok, worse stories than this have grossed crores at the B.O.  But a game-robot mouthing inanities about Karva-Chauth and pelvic-thrusting all over?? And probably the shallowest characterization of a computer geek in movies? And inane mushiness all over?  
All this I was ready to forgive in the name of kids entertainment. But the kinds of dialogues some parts of this movie has, it warrants an A certificate, leave apart a PG classification. Sorry, if I sound uncool about it but that’s how it is. I certainly expected a more responsible producer in SRK.
The only safe thing the kids would get courtesy this movie is a slick video game (my son has already got one for himself) and visuals of admittedly very advanced special effects Bollywood has seen.
But then, as I said, does only SFX a fine film make? No!!! 

Thursday, November 03, 2011

Falling scrap - a cause of worry?

Today's Indian Express Delhi Edition contains my letter to the editor about a news item yesterday, which lamented about the falling scrap levels in the Indian Railways. 
Scrap levels going down is an indicator of better efficiency, not something to be worried about, was what I mentioned.
Below is the letter:


And here is the original news item:

Tuesday, November 01, 2011

राग दरबारी - श्रीलाल शुक्ल जी की कालजयी रचना (Raag Darbari - Shreelal Shukla)

हिंदी लेखकों में संभवत: सबसे करारे व्यंगकार श्रीलाल शुक्ल जी नहीं रहे | उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धान्जलि| 
शुक्ल जी के लेखन से मेरा परिचय उनकी सर्वाधिक प्रसिद्द और साहित्य अकादमी पुरुस्कृत कृति "राग दरबारी" से हुआ | मेरे लड़कपन में दूरदर्शन पर आने वाले इसी नाम के सीरियल को देख कर मैं इस किताब तक पहुंचा था |    
जैसा मैंने पहले  भी कहा है, "राग-दरबारी" न केवल भारत की गाय-पट्टी में बिखरे असंख्य कस्बों और गावों का एक अनिवार्य प्राईमर है बल्कि व्यंग्य की शक्ल में हमारे तंत्र की विफलताओं का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है | 
शिवपाल-गंज नामक एक काल्पनिक क़स्बे में स्थित यह गाथा छोटे कस्बों और गावों की सामाजिक और  राजनैतिक हालत पर तीखा किन्तु सोद्देश्य व्यंगय करती है, और सत्तर के दशक में लिखी जाने के बावजूद यह कमोबेश आज भी प्रासंगिक है |स्वयं लेखक के शब्दों में - " जैसे जैसे उच्चस्तरीय वर्ग में ग़बन, धोखा-धड़ी,  भ्रष्टाचार और वंशवाद अपनी जड़ें मज़बूत करता जाता है, वैसे वैसे आज से चालीस वर्ष पहले का यह उपन्यास और भी प्रासंगिक होता जा रहा है"  |   
इस किताब की मारक क्षमता से आपका परिचय करवाने के उद्देश्य इसी पुस्तक से मैं एक छोटा अंश मैं उद्धत कर रहा हूँ | आप में से जिन्होंने भी दिल्ली के अत्याधुनिक टी-3 हवाई अड्डे के अलावा कस्बाई बस अड्डों पर भी विचरण किया है, उन्हें यह बहुत पहचाना हुआ लगेगा | मेरी मानिये, किताब तुरंत उठाइए |          


हमारे न्याय-शास्त्र की किताबों में लिखा है की जहाँ-जहाँ धुआं होता है, वहां-वहां आग भी होती है | वहीँ यह भी बढ़ा देना चाहिए कि जहाँ बस का अड्डा होता है, वहां गन्दगी होती है |
शिवपालगंज के बस-अड्डे की गन्दगी बड़ी नियोजित ढंग की थी |
गन्दगी-प्रसार योजना को आगे बढाने वाले कुछ प्राकृतिक साधन वहां पहले ही से मौजूद थे. अड्डे के पीछे एक समुद्र था, यानी कम-स-कम एक झील थी जो बरसात में समुद्र-सी दिखती थी | दरअसल यह झील भी नहीं थी, जाड़ों में वह झील थी, बाद में वह एक छोटा-सा पोखर बन जाती थी | गन्दगी की सप्लाई का वह एक नैसर्गिक साधन था | शाम-सवेरे वह जनता को खुली हवा देता था और खुली हवा के शौचालय की हैसियत से भी इस्तेमाल होता था | सुबह होते ही 'शर्मदार के लिए सींक की आड़ काफी होती है', इस सिद्धांत पर वहां उगने वाले हर तिनके के पीछे एक-एक शर्मदार आदमी छुपा हुआ नज़र आता था, बहुत से ऐसे भी लोग थे जो 'भाइयों और बहनों, मेरे पास  छिपाने को कुछ नहीं है' वाली सच्चाई से बिलकुल खुले में बैठ कर और सींक की आड़ भी न ले कर, अपने आपको पेश करने लगते थे | इस मौके से फ़ायदा उठाने के लिए शिवपालगंज के सभी पालतू सूअर सवेरे-सवेरे उधर ही पहुँच जाते थे | वे आदमियों द्वारा पैदा की हुई गन्दगी को आत्मसात  करते, उसे इधर-उधर छितराते और वहां की हवा को बदबू से बोझिल बनाने की कोशिश करते | पोखर के ऊपर से उड़ कर कसबे की ओर आनेवाली हवा - जिसका कभी भवभूति ने 'वीचीवातै:, शीकरच्छोदशीतै:' के रूप में अनुभव किया होगा - बस के अड्डे पर बैठे हुए मुसाफिरों को नाक पर कपडा लगाये रहने पर मजबूर कर देती थी | गाँव-सुधार के धुरंधर विद्वान् उधर शहर में बैठ कर "गाँव में शौचालय की समस्या" पर गहन विचार कर रहे थे और वास्तव में 1937 से अब तक विचार-ही-विचार करते आ रहे थे, इधर बस के अड्डे पर बैठे हुए मुसाफ़िर नाक पर कपड़ा लपेट कर कभी जैन-धर्म स्वीकार करने को तैयार दिखते, कभी सूअरों की गुरगुराहट सुनते हुए वाराह-अवतार की कल्पना में खो जाते | वातावरण बदबू और धार्मिक संभावनाओं से भरा-पूरा था |
सूअरों के झुण्ड सड़क पर निकलते समय आदमियों की नक़ल करते | वे दायें-बाएँ चलने का ख्याल न करके सड़क पर निकलने वाली हर सवारी के ठीक आगे चलते हुए नज़र आते और आपसी ठेल-ठाल में कॉलिज के लड़कों को भी मात देते | बस के अड्डे की चहारदीवारी एक जगह पर टूट गयी थी | इसका फ़ायदा उठा कर वे सड़क से सीधे बस के अड्डे में घुसते और दूसरी ओर फाटक से निकल कर पोखर के किनारे पहुँच जाते | उनके वहां पहुंचते ही पिकनिक और यूथ - फ़ेस्टिवल का समाँ बंध जाता | 
गन्दगी-प्रसार-योजना के अंतर्गत वहां पर बस का अड्डा बनाते समय इन प्रकुर्तिक सुविधाओं का ध्यान रखा गया होगा | वैसे, गन्दगी सप्लाई करने की दूसरी एजेंसियाँ भी वहां पहले से मौजूद थी | उनमें एक ओर मंदिर था जो अपनी चीकट सीढ़ीयों के कारण मक्खी-पालन का बहुत बड़ा केंद्र बन गया था | उसके चारों ओर छितरे हुए बासी फूल, मिठाई के दोने और मिट्टी के टूटे-फूटे सिकोरे चीटियों को भी आकर्षित करते थे | दूसरी ओर एक धर्मशाला थी जिसके पिछवाड़े हमेशा यह संदेह होता था कि यहाँ पेशाब का महासागर सूख रहा है |
गंदगी के इन कार्यक्रमों में ठीक से ताल-मेल बैठाकर छोटी-मोटी कमियों को दूसरी तरकीबों से पूरा किया गया था | उनमें सबसे प्रमुख स्थान थूक का था जिसे हर जगह देखते रहने के कारण राष्ट्रीय चिह्न मान लेने की तबियत करती है | हमारी योजनाओं में जैसे काग़ज़, वैसे ही हमारी गंदगी का महत्वपूर्ण तत्व थूक है | थूक उत्पादन में वहां पान की दस-बीस दुकानें, कुछ स्थिर और कुछ गश्ती - प्राइवेट सेक्टर की सरकारी मान्यता प्राप्त फैक्ट्रीयों की तरह काम करती थीं | थूक का उत्पादन जोर पर था | थूक फ़ैलाने के लिए चारों तरफ कई पात्र ज़मीन में गाड़ दिए गए थे जिनको देखते ही आदमी किसी भी दिशा में - उर्ध्व दिशा को छोड़ कर - थूक देता था और वह इस खूबी से थूकता था कि सारा थूक पात्र के बाहर ही जा कर गिरे | नतीजा यह था कि चारों ओर चार फुट की ऊंचाई तक दीवारों पर, और कहीं फ़र्श पर, थूक की नदियाँ कुछ-कुछ उसी तरह बहती थीं, जैसे सुनते हैं, कभी यहाँ घी-दूध की नदियाँ बहा करती थीं | 
फिर लुढ़कते और रिरियाते हुए भिखमंगे, जो संख्या में बहुत कम होने पर भी अपनी लगन के कारण चारों तरफ एक-साथ दिखाई देते | चाय की दुकानों पर चाय की सड़ी, चुसी हुई पत्तियाँ और गंदे पानी के नाब-दान | आने और जाने वाली बसों की गर्द | मरियल कुत्तों की आरामगाहें | और गंदगी - प्रसार योजना को सबसे बड़ा प्रोत्साहन देने वाली अखिल भारतीय संस्था - मिठाई और पूड़ी की दुकानें, हलवाईयों की तोंद, उनके छोकडों की पोशाक |    

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