अभी किसी पत्रिका में पढ़ा कि आधुनिक भारत में दलित उत्थान के एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्तम्भ कांशीराम का जन्मदिन आगामी १५ मार्च को है.
इस पर मुझे ओशो रजनीश के एक प्रवचन (गीता दर्शन, भाग-१, सोलहवां प्रवचन, सन अनुमानतः १९७० के उपरांत) के उस भाग की याद हो आयी जिस में उन्होंने वर्ण-व्यवस्था की वैज्ञानिकता पर चर्चा की है.
जाति और वर्ण व्यवस्था के मसले पर कुछ कह पाने जितना न तो मैं पढ़ा-लिखा हूँ, न मुझे बड़ा भारी सामाजिक अनुभव है पर यह निश्चित है कि मैं किसी भी सामाजिक अन्याय और असमता का पक्षधर नहीं हूँ. यह भी मैं समझता हूँ कि यह एक ऐसा संवेदनशील विषय है जिस पर साधारणतया खुल कर, बिना पूर्वाग्रहों के, निष्पक्ष बहस बहुत मुश्किल है. पर इस सब के उपरांत इस प्रवचन के मूल भाव से मैं पूर्णतया:सहमत हूँ और इस लिए आपके साथ साझा करने की इच्छा रखता हूँ.
आज प्रस्तुत है पहला भाग:
हे अर्जुन..... और धर्म को देख कर भी तू भय करने योग्य नहीं है, क्यूंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़ कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है /(श्लोक ३१, श्री भगवद गीता) |
"कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि और सब बातें छोड़ भी दो, तो भी क्षत्रिय हो, और क्षत्रिय के लिए युद्ध से भागना श्रेयस्कर नहीं है
इसे थोडा समझ लेना जरूरी है, कई कारणों से.
एक तो विगत पांच सौ वर्षों में , सभी मनुष्य सामान हैं, इसकी बात इतनी प्रचारित की गयी है कि कृष्ण की यह बात बहुत अजीब लगेगी, बहुत अजीब लगेगी, कि तुम क्षत्रिय हो. समाजवाद के जन्म के पहले, सारी पृथ्वी पर, उन सारे लोगों ने, जिन्होंने सोचा है और जीवन को जाना है, बिलकुल ही दूसरी उनकी धारणा थी. उनकी धारणा थी कि कोई भी व्यक्ति सामान नहीं है. एक.
और दूसरी धारणा उस असमानता से ही बंधी हुई थी और वह यह थी कि व्यक्तियों के टाइप हैं, व्यक्तियों के विभिन्न प्रकार हैं. बहुत मोटे में, इस देश के मनीषियों नें चार प्रकार बांटे हुए थे, वे चार वर्ण थे.
(चित्र krishna.org से साभार) |
वर्ग की धारणा भी बुरी तरह, बुरी तरह निन्दित हुई. इसलिए नहीं कि वर्ण की धारणा के पीछे कोई मनोवैज्ञानिक सत्य नहीं है, बल्कि इस लिए कि वर्ण की धारणा मानने वाले लोग अत्यंत नासमझ सिद्ध हुए. वर्ण की धारणा को प्रतिपादित जो आज लोग कर रहे हैं, अत्यंत प्रतिक्रियावादी और अवैज्ञानिक वर्ग के हैं. संग-साथ से सिद्धांत तक मुश्किल में पड़ जाते हैं...
इन भिन्नताओं की अगर हम बहुत मोटी रूप-रेखा बांधें, तो इस मुल्क ने कृष्ण के समय तक बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य को विकसित कर लिया था और हमने चार वर्ण बांटे थे. चार वर्णों में राज है. और जहां भी कभी मनुष्यों को बांटा गया है, वह चार से कम में नहीं बांटा गया है और चार से ज्यादा में भी नहीं बांटा गया: जिन्होनें भी बांटा है - इस मुल्क में ही नहीं , इस मुल्क के बाहर भी. कुछ कारण दिखाई पड़ता है. कुछ प्राकृतिक तथ्य मालूम होता है पीछे.
ब्राह्मण से अर्थ है ऐसा व्यक्ति, जिसके प्राणों का सारा समर्पण बौद्धिक है, इंटेलेक्चुअल है. जिसके प्राणों की सारी ऊर्जा बुद्धि में रूपांतरित होती है. जिसके जीवन की सारी खोज ज्ञान की खोज है. उसे प्रेम न मिले, चलेगा; उसे धन न मिले, चलेगा; उसे पद न मिले, चलेगा; लेकिन सत्य क्या है, इस के लिए वह सब समर्पित कर सकता है. पद, धन, सुख, सब खो सकता है. बस, एक लालसा, उसके प्राणों की उर्जा एक ही लालसा के इर्द-गिर्द जीती है, उसके भीतर एक ही दिया जल रहा है और वह दिया यह है कि ज्ञान कैसे मिले? इसको ब्राह्मण....../
आज पश्चिम में जो वैज्ञानिक हैं, वे ब्राह्मण हैं. आइन्स्टीन को ब्राह्मण कहना चाहिए, लुइ पाश्चर को ब्राह्मण कहना चाहिए. आज पश्चिम में तीन सौ वर्षों में जिन लोगों ने विज्ञान के सत्य की खोज में अपनी आहुति दी है, उनको ब्राह्मण कहना चाहिए.
दूसरा वर्ग है क्षत्रिय का. उसके लिए ज्ञान नहीं है उसकी आकांक्षा का स्त्रोत, उसकी आकांक्षा का स्त्रोत शक्ति है, पावर है. व्यक्ति हैं पृथ्वी पर, जिनका सारा जीवन शक्ति ही की खोज है. जैसे नीत्से, उस ने किताब लिखी है, विल टू पावर. किताब लिखी है उसने कि जो असली नमक हैं आदमी के बीच - नीत्से कहता है - वे सभी शक्ति पाने को आतुर हैं, शक्ति के उपासक हैं, वे सब शक्ति की खोज कर रहे हैं. इसलिए नीत्से ने कहा कि मैंने श्रेष्ठतम संगीत सुने हैं, लेकिन जब सड़क पर चलते हुए सैनिकों के पैरों की आवाज और उनकी चमकती हुई संगीनें रौशनी में मुझे दिखाई पड़ती है, इतना सुन्दर संगीत मैंने कोई नहीं सुना.
ब्राह्मण को यह आदमी पागल मालूम पड़ेगा, संगीन की चमकती हुई धार में कहीं कोई संगीत होता है? कि सिपाहियों के एक साथ पड़ते हुए कदमों की चाप में कोई संगीत होता है? संगीत तो होता है कंटेम्पलेशन में, चिन्तना में, आकाश की नीचे वृक्ष के पास बैठ कर तारों के सम्बन्ध में सोचने में. संगीत तो होता है खोज में सत्य की. यह पागल है नीत्से!"
दूसरा वर्ग है क्षत्रिय का. उसके लिए ज्ञान नहीं है उसकी आकांक्षा का स्त्रोत, उसकी आकांक्षा का स्त्रोत शक्ति है, पावर है. व्यक्ति हैं पृथ्वी पर, जिनका सारा जीवन शक्ति ही की खोज है. जैसे नीत्से, उस ने किताब लिखी है, विल टू पावर. किताब लिखी है उसने कि जो असली नमक हैं आदमी के बीच - नीत्से कहता है - वे सभी शक्ति पाने को आतुर हैं, शक्ति के उपासक हैं, वे सब शक्ति की खोज कर रहे हैं. इसलिए नीत्से ने कहा कि मैंने श्रेष्ठतम संगीत सुने हैं, लेकिन जब सड़क पर चलते हुए सैनिकों के पैरों की आवाज और उनकी चमकती हुई संगीनें रौशनी में मुझे दिखाई पड़ती है, इतना सुन्दर संगीत मैंने कोई नहीं सुना.
ब्राह्मण को यह आदमी पागल मालूम पड़ेगा, संगीन की चमकती हुई धार में कहीं कोई संगीत होता है? कि सिपाहियों के एक साथ पड़ते हुए कदमों की चाप में कोई संगीत होता है? संगीत तो होता है कंटेम्पलेशन में, चिन्तना में, आकाश की नीचे वृक्ष के पास बैठ कर तारों के सम्बन्ध में सोचने में. संगीत तो होता है खोज में सत्य की. यह पागल है नीत्से!"
(आगे जारी.....)
2 comments:
Good read, interesting. Waiting for the next post.
S.V. Bhatt
When will you give the next post. Very relevant today,if only people take interest in such things.
S. V. Bhatt.
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