Tuesday, January 25, 2011

Sunday, January 23, 2011

पातळ अर पीथल


अभी जनवरी 29 को महाराणा प्रताप की पुण्य-तिथि है. 
महाराणा प्रताप की जीवनी तो मैंने कोर्स की किताबों में पढी है पर उनके देश-भक्ति के जज्बे को वाकई पढने के लिए मेरे विचार में राजस्थानी कवि कन्हैया लाल जी सेठिया की अति-लोकप्रिय वीर-रस की राजस्थानी कविता 'पातळ और पीथल" से बेहतर कुछ नहीं है.
सर्व-विदित है कि राणा प्रताप उन गिने-चुने (या शायद सिर्फ अकेले?) राजाओं में से थे जिन्होंने अकबर की दासता स्वीकार नहीं की थी और मेवाड़ को स्वतंत्र रखने के लिए जंगल-जंगल घूमना मंजूर किया था.  
इस प्रवास के दौरान एक कमजोर क्षण ऐसा आया जब अपने पुत्र अमर सिंह को रोटी के लिए बिलखते देखा तो अकबर को संधि-प्रस्ताव लिख भेजा. परन्तु अकबर के दरबार में नियुक्त कवि पीथल के प्रबल आह्वान ने उनके अन्दर के योद्धा को फिर जागृत कर डाला. कविता यही कहानी कहती है.     
बचपन में माँ के मुंह से सिर्फ सुनी इसकी पांच छः प्रमुख पंक्तियों ने मुझे कई सालों तक बांधे रखा पर बिना इन्टरनेट के उस जमाने में पूरी कविता कई सालों नहीं मिल पायी. आइये आज सम्पूर्ण कविता साझा करते हैं (आशा करता हूँ कि राजस्थानी भाषा आप समझ पाएंगे) : 


अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमरियो चीख पड्यो, राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
हूं लड्यो घणो, हूं सह्यो घणो
मेवाड़ी मान बचावण नै,
हूं पाछ नहीं राखी रण में
बैर्याँ री खात खिडावण में,
जद याद करूँ हळदीघाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूँ
जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूँ
भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
महलां में छप्पन भोग जका, मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाल्यां नीलम रै, बाजोट बिनां धरता कोनी,
"अै हाय जका करता पगल्या, फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया, हिंदवाणै सूरज रा टाबर"
- आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिखस्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,
मैं झुकूं कियां ? है आण मनैं
कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां ? हूं सेस लपट
आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूँ दिल्लीस तनैं समराट् सनेशो कैवायो।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो
कै आज हुयो सूरज सीतळ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो
आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,
बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै
रजपूती गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो
राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैर्यां रै मन रो कांटो हो बीकाणूँ पूत खरारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो
घावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो
राणा री हार बंचावण नै,
म्है बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?
मर डूब चळू भर पाणी में
बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो
तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपती खून रगां में है ?
जंद पीथळ कागद ले देखी
राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई
आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाळ संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं
राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं
आ बात सही बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो
स्याळां रै सागै सोवै लो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो
बादळ री ओटां खोवैलो;
म्हे आज सुणी है चातगड़ो
धरती रो पाणी पीवै लो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो
कूकर री जूणां जीवै लो
म्हे आज सुणी है थकां खसम
अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में
तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ नै राणा लिख भेज्यो आ बात कठै तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़तां ही
राणा री आँख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूँ कायर हूँ
नाहर री एक दकाल हुई,
हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं
मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूँ घोर उजाड़ां में भटकूं
पण मन में मां री याद रवै,
हूँ रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,
ओ सीस पड़ै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला,
पीथळ के खिमता बादल री
जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै
बा कूख मिली कद स्याळी नै?
धरती रो पाणी पिवै इसी
चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी
हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तलवार थकां
कुण रांड़ कवै है रजपूती ?
म्यानां रै बदळै बैर्यां री
छात्याँ में रैवैली सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकै लो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्याँ ऐंठ्योड़ी
लोही री नदी बहा द्यूंला,
हूँ अथक लडूंला अकबर स्यूँ
उजड्यो मेवाड़ बसा द्यूंला,
जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही। 
(चित्र http://blogs.rhsmith.umd.edu/ से)

Sunday, January 16, 2011

Sunday at the Qutub

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र - दिल्ली  में रहते करीब 15 साल हो गए हैं, और इस से पहले भी तमाम बचपन यहाँ आता रहा हूँ. पर कभी कभी बड़ी  शर्म सी महसूस करता हूँ कि "जीवन की आप धापी" में यहाँ बिखरे पड़े इतिहास के अनमोल खजानों से दिली तौर पर रु-ब-रु नहीं हो पाया हूँ. इस लिए कोशिश रहती है कि इस काम को धीरे धीरे अंजाम दिया जाये.
कई दिन की ठिठुराती सर्दी के बाद जब इस रविवार पारा उठा और धूप चमकी तो अपने आपको कुतुब मीनार परिसर में पाया. इस जगह के बारे में कहने की तो कोई जरूरत ही नहीं हैं.
अपने मोबाइल कैमरे की परिमिति से मार खाते हुए भी कुछ तसवीरें आपके लिए:

 










Saturday, January 08, 2011

2011 - Resolutions, anyone?

Resolutions are just not my scene. I am brutally reminded of this every time I undergo the Happy New Year rigmarole, and see strong-willed people around me making a list - not one, not two - a whole list of resolutions!
In the true spirit of a procrastinator, I, when faced with the inevitability of such strong actions, make a wishful thinking instead, and then pray endlessly that it becomes true. So, as we move in to this new year 2011, here is a small wishlist of mine:

  1. I wish a face-to-face televised debate to be held between the maoists / naxalites and the government so that we could finally decide who are the real villains. As of now, we oscillate from being fashionably-forward types thinking in favor of the down-trodden to being politically correct and supporting the salwa-judum etc.  
  2. I wish each street of our nation could be accorded autonomy and granted a status of a federal democratic republic, which would finally put to rest the unrest over ever-increasing "regional aspirations", simply because there would be nothing more left to break free of.  
  3. I wish we could formally institutionalize the corruption in every sphere of our lives and governance. The parliament could discuss and draw up a detailed rate-list for all jobs to be done. This would make things more transparent and efficient and whats more - when India hosts the Olympics, we could concentrate on the sport without wasting our collective time on trivial moral issues.
  4. I wish the traffic police starts handing out "road-rage metres" along with the driving licenses. This would constitute a traffic-light contraption to be worn on the head by the driver, with the color indicating the person's temperature. You could at least avoid arguing with a person with a flashing red light on his head.  
  5. I wish the perpetrators of  "honor-killings' on innocent youngsters finally grow eyes in front of their faces and look forward for a change. 
  6. I wish the T20s to be progressively reduced to T10 and then possibly to T-1/6 to ensure a steady   excitement dose for cricket-crazy public and a steadier endorsement income for the cricketers. In foreseeable future, the cheerleaders could replace the players.   
  7. I wish Google search could be somehow activated in real-life (remember those sci-fi novels). Lost keys, misplaced papers etc. have started becoming a problem in advanced age.
  8. In the same manner, I wish there could be a system of affixing "Like" buttons on living people. Making friends and enemies would be so much easier, and would remove so much of duplicity from the world. 
  9. I wish a directive to be brought out to consign all the present and future infamous reality shows  to a single TV channel, which would make it awfully easy for us to avoid them like they do for tele-shopping networks. As they say, गलती से भी गलती ना हो.
  10. In a similar manner, I sincerely wish there is a separate radio FM channel for the ever-increasing property / real estate / builder ads. I know housing is a good economic indicator but I simply can not bear to hear anymore of those irritatingly well-modulated voices exhorting me to drool at some "dream-property" at some undreamed-of locations.           
  11. I wish the TV news-channels could take out some time to show only tickers on their screens - maybe a warp and waft design or some other, so that in the remaining time they do not torment us with multiple news tickers at the bottom of the screen which are completely undecipherable. 
  12. I wish each honored member of the Gen-Y (or is it Z now?) is made to attend a compulsory coaching on "How to speak Hindi in Hindi".   
  13. I wish being 'sexy' includes being fat and bald - in this year and ahead. 
Do let me know if you can add to this list.
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