अभी कुछ दिन पहले मित्र राहुल झाम्ब ने अपने फेस-बुक नोट्स पर बाबा नागार्जुन की प्रसिद्द कविता - "मन्त्र-कविता ॐ" लगाई थी.
इसे एक विरोधाभास (आप कविता पढेंगे तो जानेंगे, विरोधाभास क्यूँ) ही कहूँगा कि इस शानदार कविता ने मुझे वेदों में लिखे इस शांति-पाठ की याद दिला दी, जो कि सामान्यतः हिन्दू धर्म से ही जोड़ा जाता रहा है -
कुछ समय पहले एक कैलेंडर पर इसका भावार्थ पढ़ा, जो कि आप से बांटना चाहता हूँ. मुझे पता नहीं यह कितना प्रमाणिक है, और ना ही इस के उद्गम के बारे में मुझे पता है (आपको पता हो तो बताएं), पर इस को धर्म की संकरी गली से निकाल कर इंसानियत के चश्मे से पढ़ा जाये तो बहुत सुन्दर भाव है:
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में,
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में!
जल में, थल में, और गगन में,
अंतरिक्ष में, अग्नि-पवन में,
औषधि, वनस्पति, वन-उपवन में,
सकल विश्व में, जड़-चेतन में,
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में!
ब्राह्मण के उपदेश वचन में,
क्षत्रिय के द्वारा हो रण में,
वैश्य जनों के होवे धन में,
और शूद्र के होवे चरनन में,
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में!
शांति राष्ट्र-निर्माण, सृजन में,
नगर, ग्राम में और भवन में,
जीवन मात्र के तन में, मन में,
और जगती के हो कण कण में,
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में, शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में.
एक निवेदन - "और शूद्र के होवे चरनन में" के अर्थ के बारे में मुझे शंका है, हो सके तो बताएं.
2 comments:
इस भावार्थ के उद्गम की जानकारी तो मुझे भी नहीं, पर मेरी राय में "ब्रह्मण के उपदेश वचन में..." का शांति-पाठ के शब्दार्थ/ भावार्थ में उपयोग ही सही नहीं है। अगर आप शांति पाठ का शब्दशः हिंदी-रूपांतरण करेंगे तो स्वतः ही इसका आभास होगा कि इस verse का शान्ति-पाठ में कहीं कोई संकेत नहीं मिलता।
फ़िर भी, अगर इसे समझें, तो मेरे विचार में "शुद्र के होवे चरनन में..." का उद्गम ऋग-वेद के "पुरुष सूक्त" से है, जिसके अनुसार सृष्टि के आरम्भ से पहले आत्मा का वर्ण (रंग) ब्राह्मण (परमात्मा-रुपी...symbolic of white light i.e. God) होता है, और फ़िर स्व में तीन गुणों (सत्व, रजस, तमस) के प्राबल्य के अनुसार तीन और वर्णों की उत्पत्ति होती है (क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र)। वैसे तो पाँचवा वर्ण (symbolic of black i.e. Devil) भी माना जाता है जिसे "चंडाल/ राक्षश" कहा जाता है लेकिन उसके गुण के अनुसार उसे मूल वर्णों में स्थानित नहीं किया गया। इसलिए "पुरुष" (काया-रुपी ईश्वर) के मूलतः चार अंग माने जाते हैं - सर (अथवा मस्तिष्क/बुद्धि, जिसके उपयोग में पुरुष ब्रह्मण कहलाता है), भुजाएँ (अथवा हाथ, जिसके उपयोग में पुरुष क्षत्रिय कहलाता है), धड़ (अथवा सर के नीचे और पाँव के ऊपर का शरीर, जिसके उपयोग में पुरुष वैश्य कहलाता है...जिस तरह धड़ भोजन के आयात-निर्यात से शारीरिक-उर्जा के उत्पादन और संचालन में व्यस्त रहता है, वैसे ही वैश्य-वर्ण आयत-निर्यात के जरिये अर्थ-व्यवस्था रुपी सांसारिक-उर्जा का उत्पादन और संचालन करता है), और पैर (जो शरीर के बाकी तीन अंगों का "support-system" है, जिसके उपयोग में पुरुष शुद्र कहलाता है...जिस तरह शुद्र-वर्ण पूरे समाज के कार्यों में अभिन्न-सहयोगी की भूमिका निभाता है)।
ऋग-वेद (पुरुष-सूक्त) के अनुसार, शुद्र की उत्पत्ति "पुरुष" (अथवा "ईश्वर") के पाँव (चरण) से होती है - "पद्भ्याम शुद्र अजायात"
जितना में समझ पाया हूँ, वैदिक-श्लोकों को बहुत गलत तरह से समझा जाता रहा है और समाज की रचना में इनका उपयोग भी गलत तरह से हुआ है। न तो वेदों ने वर्ण-व्यवस्था की स्थापना करी और न ही कभी इस ओर इशारा किया कि पुरुष के शरीर में सर/धड़/भुजाओं का स्थान पैरों से सर्वोच्च है। श्रीमाद्भाग्वाद गीता में भी इसका वर्णन मिलता है कि मनुष्य के वर्ण की पहचान उसके कर्मानुसार होती है, न कि जन्मनुसार।
"शांति-पाठ" के इस भावार्थ के लेखक ने शायद पुरुष की हर कर्म-अवस्था में उसकी शान्ति की प्रार्थना करी है। और, हर वर्ण से जुड़े कुछ सांकेतिक शब्दों का उपयोग किया है (जैसे कि- उपदेश-वचन, रण, धन और चरण)।
राहुल,
एक सारगर्भित विवेचन के लिए साधुवाद.
और हाँ, तुम ठीक कहते हो कि यह शब्दश: रूपांतरण नहीं ही है.
खैर, तुमने मुझे वर्ण व्यवस्था की बात कर के ओशो के एक discourse की याद दिला दी. जल्द ही उसे ब्लॉग पर बांटूंगा.
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