भारतीय रंग-कर्म के लेखन क्षेत्र में विजय तेंदुलकर एक कद्दावर नाम है, यह मैंने पहली बार बीस साल पहले तब जाना था जब स्कूल में उनके लिखे एक प्रख्यात नाटक "खामोश, अदालत जारी है" पर आधारित (सिर्फ़ "आधारित, क्यूंकि स्कूल के बालकों के लिए इस की थीम काफी बोल्ड थी) एक नाटक का मंचन देखा था।
कल एन.एस.डी रंगमंडल की प्रस्तुति "जात ही पूछो साधू की" देख कर लौटा हूँ और एक बार फिर शिद्दत के साथ विजय तेंदुलकर, और साथ ही में रंगशाला के कलाकारों का और हिन्दी अनुवादक डॉ। वसंत देव का, कला-कौशल महसूस रहा हूँ।
"जात.." एक बहुत ही आम, कस्बाई युवक महीपत की कहानी है जो हमारे देश के लाखों युवकों की कहानी की तरह तीसरे दर्जे में एम्.ए पास से शुरू हो कर, जात-पात, भाई-भतीजावाद, गंवाई राजनीती और असफल प्यार से होती हुई अंततः बे-रोजगारी पर ख़त्म होती है.
कहानी बिलकुल सीधी-सादी, या यूँ कहें कि एक-आयामी ही है पर विजय तेंदुलकर के हाथों में एक farce का treatment पा कर, और वसंत देव के शानदार हिंदी अनुवाद और आंचलिक संवादों से सज कर यह एक घनघोर हास्य नाटक में बदल गयी है. और इस पर रंगमंडल (NSD repertoire) के कलाकारों के उच्च स्तरीय अभिनय ने इस नाटक की प्रशंस्नीयता को अक्षुण रखा है. नायक महीपत की भूमिका में अम्बरीश सक्सेना बहुत दमदार हैं, और इसके अलावा बबना, नलिनी और चेयरमैन (सुरेश शर्मा) भी कमाल के हैं. सुरेश शर्मा रंगमंडल के प्रमुख हैं, और इन्हें "घासीराम कोतवाल" में नाना के रोल में देखना भी एक अनुभव ही था.
ऐसे नाटकों को देख कर यह अहसास होता है कि वाकई अभिनय कला की सही कसौटी मंच ही है, फूहड़ फिल्में, भद्दे टी.वी सीरिअल और रियलिटी टी.वी प्रोग्राम नहीं.
नाटकों के बारे में और बातें फिर कभी.
1 comment:
Hey Rahul,
Just read your blog on “Jaat…..” . I am truly impressed by your command over the Hindi language. I thoroughly enjoyed what was written. Not what was written about, but what was written.
I honestly envy you.
Rajeev Nawani
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