Tuesday, June 23, 2009

गोरा

मैंने अक्सर किताबें पढ़ते हुए सोचा है कि ऐसा क्या है जो एक लेखक को औरों से ज्यादा पठनीय बनता है, एक महान लेखक को आम लेखकों से अलग करता है, और सबसे बड़ी बात - उसकी रचनाओं को कालजयी बना देता है।
बहुत साल पहले जब प्रेमचंद को मैंने पहली बार पढ़ा था तो इस प्रश्न से मेरा पहला साबका था। इस बार, मैंने गुरुदेव रबिन्द्रनाथ ठाकुर का उपन्यास "गोरा" ख़त्म किया है , और मुझे लगता है कि मैंने उत्तर पा लिया है। "गोरा" मूलतः बांगला भाषा में है, जो मैं नहीं पढ़ पाता हूँ। इसलिए कुछ दो-एक महीने पहले जब मुझे सत्चितानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" द्वारा हिन्दी में इस उपन्यास का अनुवाद मिला तो मैंने तुंरत इसे उठा लिया - गुरुदेव को पढ़ पाने का इस से बेहतर और प्रामाणिक अनुवाद और क्या हो सकता था।
"गोरा" एक ऐसा वृहत उपन्यास है जो स्वतंत्रता के कुछ दशक पहले के कलकत्ता में स्थित किया गया है और जो मित्रता, देशप्रेम, पारिवारिक सवाल-जवाबों और स्त्री-पुरूष प्रेम के ताने बाने में गूँथ कर तत्कालीन बांगला, या कहें कि भारतीय समाज की, न केवल वास्तु-स्थिति प्रस्तुत करता है बल्कि उसके अन्तर-विरोधों और रूढियों पर भी चोटें करता है। गौरमोहन नामक युवक इस उपन्यास के मुख्य पात्रों में से एक है, और इस उपन्यास के नाम का कारण भी। कहानी जानने के लिए आपको उपन्यास में डुबकी लगानी होगी।
यहाँ मैं आपसे मेरे प्रश्न का उत्तर बांटने में ज्यादा उत्सुक हूँ, चाहे साहित्य के गंभीर पाठकों और विद्यार्थियों के लिए शायद यह सब इतना नया न हो।
निपट सरल भाषा में जटिल से जटिल बात कह देना सभी महान लेखकों का संभवतः पहला विशेष लक्षण है। मैंने अंग्रेज़ी में सलमान रश्दी को पढ़ा है, और कदम कदम पर शब्दकोष की आवश्यकता महसूस की है। इस के बाद, शायद मेरे शब्द-ज्ञान में तो वृद्धि हुई होगी, लेकिन कहानी का रस कहीं बीच ही में छूट गया। इसके उलट, गुरुदेव और प्रेमचंद और इनके समकक्ष अन्य रचनाकार अपने पाठकों पर धाक ज़माने से ज्यादा अपनी बात को कहने और समझाने में विश्वास रखते हैं - वे सरल शब्दों का प्रयोग करते हैं और इस लिए आम जन से अपने आपको सायास ही जोड़ लेते हैं।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात - इन सभी रचनाकारों में मानव मन की गांठें खोल पाने का, और गहन भावनाओं को पाठक तक अपने शुध्ह्तम रूप में पहुँचा पाने का अद्भुत कला कौशल है। सभी पात्रों की सोच और उनके विचारों को इतनी ईमानदारी से हमारे समक्ष रख पाना कोई मामूली बात नहीं है।
तीसरी और आखरी बात जो मैं समझ पाया वह कारण से अधिक परिणाम है - महान कलाकारों की रचनायें बूढी नहीं होती। देश, काल और समय के परे यह आज भी हमें छू पाने का माद्दा रखती हैं।
आज इतना ही। साहित्य के बारे में आपके विचारों की प्रतीक्षा रहेगी.

10 comments:

Anonymous said...

I fully agree with your views on "Gora" another great creation of MPC. Your analysis makes me nostalgic and reminds me of "Rangbhumi" which I read long ago. The greatest art of story telling is perhaps telling it in the simplest way.
nixon - nixmat@gmail.com

Rahul Gaur said...
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Rahul Gaur said...

Thank you Nixon for your comment.
(I think you probably mean RNT - Rabindra Nath Tagore, when you say MPC - Munshi Prem Chand, right?)
As you have rightly mentioned, Rangbhumi, Godaan, Nirmala - all of them are so understated yet so effective!

Anonymous said...
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