Sunday, August 14, 2011

वाह बीकाणा वाह! - The Alluring City of Bikaner


बीकानेर उत्तर-पश्चिमी राजस्थान में एक छोटा सा शहर है. ऊँघता हुआ सा. कीकर के पेड़ों, ऊंट-गाड़ों, अलसाई दुपहरियों और धूल के थपेड़ों से भरा. और अपने भुजिया-नमकीन, रसगुल्लों और चूहों वाले मंदिर के लिए प्रसिद्द.      


मैं यहाँ जन्मा और पला बढ़ा हूँ और बचपन से स्कूल छोड़ने तक मैं भी किसी टूरिस्ट ब्रोशर पर छपी इसी जानकारी की तरह अपने शहर को देखता था.  शहर को पारखी नज़रों से देख पाने की न तो काबिलियत थी, न ऐसी समझ पैदा कर पाना ज़िन्दगी की कोई प्राथमिकता.

पर अब, जबकि मेरे पास समय और देश की दूरी से उपजी तटस्थता है और थोडा बटोरे गए अनुभवों का ज्ञान, मुझे लगता है कि मैंने इस शहर को कितना कम जाना. विकीपेडिया की अन-एडिटेड एंट्रीज की तरह इस जानकारी को भी थोडा और अपडेट किया जाना जरूरी है.


हिंदुस्तान के कमोबेश और सभी छोटे शहरों की तरह यहाँ भी ताज़ा ओढी गयी कृत्रिम आधुनिकता के आवरण के नीचे एक खालिस, धड़कता हुआ दिल लिए एक शहर बसता है जिस की पहचान सिर्फ इतिहास की किताब, टूरिस्ट ब्रोशर और भुजिया-रसगुल्लों के विज्ञापनों में नहीं है. 

इस शहर की असली रौनक हैं इस के गली-मोहल्ले, पुराने रस्मो-रिवाज़, कही-अनकही कहानियां और सब से ऊपर यहाँ के लोग जो कहीं-न-कहीं वह सरलता और मानवीय संवेदना आज भी अपने अन्दर लिए हैं जो बड़े शहरों में पाना नामुमकिन होने की हद तक मुश्किल है. और मैं बहुत निश्चित हो कर यह बात कह रहा हूँ, कोरी भावुकता में बह के नहीं.  

यह शुद्ध मानवीय संवेदना नहीं तो और क्या है कि मेरे चालीस साला जीवन में ही नहीं, बल्कि मेरे पिता और दादा के ज़माने के लोगों को भी याद नहीं पड़ता कि कभी यहाँ हिन्दू-मुसलमान तनाव की भी कोई बात भी सुनी गयी हो, दंगों की तो बात ही छोडिये. अब पिछले दस सालों की ज़मीनी हकीकत मुझे पता नहीं, क्यूंकि भगवा ब्रिगेड और वहाबी इस्लाम के पैरोकार तो अब सभी जगह सक्रिय है पर  जितना मैं देख पाता हूँ, यह सिलसिला आज भी जारी है.

मेरे पिता के एक पुराने मित्र "भंवर चाचा" जाति से चूनगर मुसलमान हैं. चूनगर यानि वो कारीगर परिवार जो पुरानी इमारतों में घुटे हुए चूने (lime) की कारीगरी करते थे जो संगमरमर सी लगती थी. हमने ता-उम्र भंवर चाचा को हमारे यहाँ दीवाली और ईद दोनों की मुबारकबाद के साथ आते देखा है. उनके घर की शादियों में और मुबारक मौकों पर हम भी जाते रहे और बिना किसी लहसन प्याज तक का स्वादिष्ट, वैष्णव खाने का स्वाद लेते रहे. मुमताज़ अंकल, जो मेरे पिता के कॉलेज के मित्र थे, हनुमान जी के भक्त थे और हनुमान चालीसा का पाठ किया करते थे. रेलवे से सेवा निवृत मुज़फ्फर अहमद कादरी साहब इस्लाम के साथ साथ जैन धर्म में भी दीक्षित हुए हैं और पर्युषण पर्व में बा-कायदा आठ दिनों का निर्जल व्रत रखते हैं.

और बीकानेर का सामाजिक और राजनैतिक इतिहास उठा कर देखें तो यह कोई अजूबे नहीं हैं. यह यहाँ की जीवन शैली है जो राजे-महाराजों से होती हुई आज तक यहाँ की गली-मुहल्लों में, बाजारों, मंदिरों, मस्जिदों में जिंदा है और रहनी चाहिए.

बीकानेर की यादें और बातें बहुत हैं, इस लिए आगे कुछ एक पोस्ट में और चर्चा जारी रखना चाहूँगा. तब तक के लिए आज्ञा.  हाँ, शीर्षक के बारे में बताता चलूँ, कि यह एक दोहे का हिस्सा है. पूरा दोहा यूँ है:

ऊँठ, मिठाई, इस्तरी,
सोनो-गहणो, साह,
पाँच चीज पिर्थवी सिरे
वाह बीकाणा वाह!
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