हिंदी और अंग्रेजी के बहुत से उपन्यास, कहानियां और पत्रिकाएँ मैंने पढी हैं - साहित्यिक, माडर्न टाइप, पुराने क्लास्सिक्स, लुगदी साहित्य, और न जाने "कैफे कैफे". एक आम पाठक की हैसियत से मैंने यह पाया है कि साहित्य के मोटे तौर पर दो ही पहलू हैं - एक कथानक, दूसरा भाषा. इन दोनों की गुणवत्ता और सामंजस्य ही उस कृति, चाहे वो कहानी हो या कविता, की गुणवत्ता, प्रखरता और प्रभाव निर्धारित करता है.
इस लिहाज से मेरे विचार में बहुत थोड़े से ही लेखक ऐसे हैं कि जिनकी शैली, यानी लिखा हुआ शब्द और कथानक यानी शब्दों के बीच की कहानी, दोनों इतने दमदार, ओरिजनल और अनूठे होते हैं कि मानो पन्नों से निकल कर सीधे अन्दर के इंसान से डायरेक्ट रिश्ता बना ले जाते हैं. इस श्रेणी में सबसे ऊपर मैं रखता हूँ मनोहर श्याम जोशी को.
हम में से अधिकतर लोग मनोहर श्याम जोशी को दूरदर्शन के पहले मशहूर टी.वी सीरियल "हम लोग" के लेखक के रूप में जानते होंगे, जैसा कि मेरे अल्प-ज्ञान की बदौलत मैं जानता था. जैसा कि उस वय में हमारे साथ होता था, एक टी.वी सीरियल की सफलता में हमें सिर्फ परदे पर चेहरे दीख पाते थे, परदे के पीछे नहीं. इस लिए यह नाम आया गया हो गया, जो कि बड़ी भूल हुई.
फिर अभी करीब पांच साल पहले एक सह-ब्लॉगर "सिलबिल" ने मुझे "कसप" के बारे में बताया, जिसके जरिये मेरा बाकायदा परिचय जोशी जी की लेखनी से हुआ. "कसप" पहाड़ी पृष्ठभूमि में लिखी गयी एक हिंदी प्रेमकथा (उपन्यास) है, जिस का नायक एक अनाथ और निर्धन युवक डी.डी. (देबिया या देबिदुत्त तिवारी) है और नायिका है बेबी नाम्नी एक खिलंदढ़ कन्या. मैं आपसे सच कहता हूँ, ऐसी भावप्रण और ईमानदार प्रेमकथा मैंने आज तक न पढी है और ना ही परदे पर देखी है. पहाडी आंचलिक परिवेश और भाषा इस प्रेम-कहानी को एक अलग ही आयाम दे देते हैं. यह मुझे बाद में पता लगा कि इस उपन्यास को लोग हिंदी साहित्य के एक मील के पत्थर की तरह मानते हैं.
इस शानदार उपन्यास के बाद मैं इनका एक अन्य उपन्यास "कुरु कुरु स्वाहा" पढ़ पाया, जो कि एक और अजब ही, करीब करीब वर्णातीत सी चीज़ निकली. उपन्यास के जैकेट पर भी ऐसा ही कुछ वर्णन है, नोश फरमाइए - "नाम बेढब, शैली बेडौल, कथानक बेपेंदे का. कुल मिला कर बेजोड़ बकवास. अब यह पाठक पर है कि "बकवास" को "एब्सर्ड" का पर्याय माने या न माने". और, इसी के एक पात्र के शब्दों में - " अईसा कामेडी है कि दर्शिक लोग जानेगा, केतना हास्यास्पद है त्रास अऊर केतना त्रासद है हास्य." आंचलिक भाषाओँ पर अपनी बेहद मजबूत पकड़ का परिचय जोशी जी यहाँ पर भी दे देते हैं - पंजाबी और बम्बईया लहजों से सराबोर हिंदी से पाठक का परिचय करवा के.
"स्वाहा" के बाद बारी थी "ट-टा प्रोफ़ेसर" की, जिसे मैंने बड़ी शिद्दत से ढूँढा. आखिरकार, लैंडमार्क स्टोर पर हिंदी किताबों के निष्कासित और भूले भूले से सेक्शन में मेरी किस्मत जागी. एक ही सिटिंग में मैं इसे पढ़ गया और बिलकुल भी निराश नहीं होना पड़ा. यह उपन्यास भी "स्वीकृत मानदंडों की दृष्टि से पूरी तरह तर्क-संगत और प्रासंगिक नहीं होने के बावजूद हिंदी उपन्यासों में एक विशिष्ट दर्जा रखता है....एक पात्र की ही नहीं, एक कहानी की भी कहानी है....." (जैकेट से).
एक जीवंत और प्रमाणिक भाषा के अलावा जोशी जी के लेखन में दो चार बातें और मैंने पायी. एक तो यह कि हर कहानी के केंद्र में नायक का अकेलापन है जो पूरी कहानी को एक अबूझ और attractive उदासी दे देता है. दूसरा यह कि पूरी कहानी के दौरान एक तीसरी आँख कैमरे की तरह फिल्म बनाती चलती है, जो शायद उनके फिल्म अनुभव की वजह से है. इस से कहानी में एक अलग ही dynamics और perspective पैदा हो जाते हैं और कहानी को एक अलग ही गति दे देते हैं. तीसरी बात यह है कि कोई भी कहानी किसी मेसेज के ढकोसले में फँस कर पाठक के बौद्धिक स्तर का अपमान नहीं करती. कहानी सिर्फ कहानी होती है. चौथी बात शायद आपने अब तक नोट कर ही ली होगी - उनके अनूठे और रहस्यमयी से शीर्षक.
कुल मिला कर यह कि पहली फुर्सत में जोशी जी को पढ़ डालिए और रसास्वादन कीजिये. तब तक मैं इनकी अन्य कृतियाँ जुटाता हूं.