Sunday, March 13, 2011

वर्ण की वैज्ञानिकता - The Caste System Revisited (Osho) - 3 (Last)


भाग -३ (अंतिम)
वर्ण व्यवस्था पर ओशो रजनीश के एक प्रवचन (गीता दर्शन, भाग-१, सोलहवां प्रवचन, सन अनुमानतः १९७० के उपरांत) का उद्धरण  


"वर्ण का जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. लेकिन सम्बन्ध निर्मित हो गया. हो जाने के पीछे बहुत कारण हैं, वह मैं बात करूंगा. हो जाने के पीछे कारण थे, वैज्ञानिक ही कारण थे. सम्बन्ध नहीं था जन्म के साथ वर्ण का, इस लिए फ़्लुइडिटि थी, और कोई विश्वामित्र यहाँ से वहां हो भी जाता था. संभावना थी कि एक वर्ण से दूसरे वर्ण में यात्रा हो जाये. लेकिन जैसे ही यह सिद्धांत खयाल में आ गया और इस सिद्धांत की परम वैज्ञानिकता सिद्ध हो गयी कि प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्ण से, अपने ही स्वधर्म से ही सत्य को उपलब्ध हो सकता है, तो एक बहुत जरूरी बात पैदा हो गयी और वह यह कि यह कैसे पता चले कि कौन व्यक्ति किस वर्ण का है. अगर जन्म से तय न हो, तो शायद ऐसा भी हो सकता है कि एक आदमी जीवन भर कोशिश करे और पता ही ना लग पाए कि किस वर्ण का है; उसका क्या है झुकाव, वह क्या होने को पैदा हुआ है - पता ही कैसे चले? तो फिर सुगम यह हो सकता है कि अगर जन्म से कुछ निश्चय किया जा सके. 

लेकिन जन्म से कैसे निश्चय किया जा सके? कोई आदमी किसी के घर में पैदा हो गया, इस से तय हो जायेगा? कोई आदमी किसी के घर पैदा हो गया, ब्राह्मण के घर में, तो ब्राह्मण हो जाएगा?

जरूरी नहीं है. लेकिन बहुत संभावना है. प्रोबबिलीटी ज्यादा है. और उस प्रोबबिलीटी को बढाने के लिए, सर्टन करने के लिए बहुत से प्रयोग किये गए. बड़े से बड़ा प्रयोग यह था कि ब्राह्मण को एक सुनिश्चित जीवन व्यवस्था दी गयी, एक डिसिप्लिन दी गयी.........लेकिन दो जातियों में शादी न हो, उसका कारण बहुत दूसरा था. उसका कुल कारण इतना था कि हम प्रत्येक वर्ण को एक स्पष्ट फॉर्म, एक रूप दे देना चाहते थे....

इन चार हिस्सों में जो स्ट्राटीफिकेशन किया गया समाज का, चार हिस्सों में तोड़ दिया गया, ये चार हिस्से ऊपर-नीचे की धारणा से बहुत बाद में भरे. पहले तो एक बहुत वैज्ञानिक, एक बहुत मनोवैज्ञानिक प्रयोग था जो इनके बीच किया गया. ताकि आदमी पहचान सके कि उसके जीवन का मौलिक पैशन, उसके जीवन की मौलिक वासना क्या है......

मूल्य रुपये में नहीं होता. मूल्य व्यक्ति के वर्ण में होता है. उस से रुपये में आता है. अगर वैश्य के हाथ में रूपया आ जाए तो उस में मूल्य होता है, क्षत्रिय के हाथ में रुपये का मूल्य इतना ही होता है कि तलवार खरीद ले, इस से ज्यादा मूल्य नहीं होता, इनट्रीनसिक वैल्यू नहीं होती रुपये की क्षत्रिय के हाथ में; हाँ एक्सटर्नल वैल्यू हो सकती है कि तलवार खरीद ले.

इति.

इसी क्रम में - 

            

Saturday, March 12, 2011

वर्ण की वैज्ञानिकता - The Caste System Revisited (Osho) - 2

भाग -२
वर्ण व्यवस्था पर ओशो रजनीश के एक प्रवचन (गीता दर्शन, भाग-१, सोलहवां प्रवचन, सन अनुमानतः १९७० के उपरांत) का उद्धरण  

"लेकिन नीत्से किसी एक वर्ग के लिए ठीक-ठीक बात कह रहा है. किसी के लिए तारों में कोई अर्थ नहीं होता. किसी के लिए एक ही अर्थ होता है, एक ही संकल्प होता है कि शक्ति और उर्जा के उपरी शिखर पर कैसे उठ जाए. उसे हमने कहा था क्षत्रिय.....

चित्र "द लास्ट मुग़ल" से  
तीसरा एक वर्ग और है, जिसको तलवार में सिर्फ भय के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ेगा; संगीत तो कभी नहीं, सिर्फ भय दिखाई पड़ेगा. जिसे ज्ञान की खोज नासमझी मालूम पड़ेगी कि सरफिरों का काम है. तो तीसरा वर्ग है, जिसके लिए धन महिमा है. जिसके लिए धन ही सब कुछ है. धन के आस पास ही जिसके जीवन की सारी व्यवस्था निर्मित होती है. अगर वैसे आदमी को मोक्ष की भी बात करनी हो तो उसके लिए मोक्ष भी धन के रूप में ही दिखाई पद सकता है. अगर वह भगवान् का भी चिंतन करेगा तो भगवन को लक्ष्मीनारायण बनाये बिना नहीं रह सकता. इसमें उसका कोई कसूर नहीं है. सिर्फ फैक्ट, सिर्फ तथ्य की बात कर रहा हूँ मैं. और ऐसा आदमी छिपाए अपने को, तो व्यर्थ ही कठिनाई में पड़ेगा. अगर वह दबाये अपने आपको तो कठिनाई में पड़ेगा. उसके लिए जीवन की जो परम अनुभूति का द्वार है, वह शायद धन की खोज से ही खुलने वाला है. इस लिए और कहीं से खुलने वाला नहीं है. 

अब एक रॉकफैलेर या एक मोर्गोन या एक टाटा, ये कोई छोटे लोग नहीं हैं. कोई कारण नहीं है इनके छोटे होने का. ये अपने वर्ग में वैसे ही श्रेष्ठ हैं जैसे कोई याज्ञवल्कय, जैसे कोई पतंजलि, जैसे कोई अर्जुन अपने वर्गों में होंगे. इस में कोई तुलना, कोई कम्पेरिज़न नहीं है.

वर्ग की जो धारणा है, वह तुलनात्मक नहीं है, वह सिर्फ तथ्यात्मक है. जिस दिन वर्ण की धारणा तुलनात्मक हुई, कि कौन ऊपर और कौन नीचे, उस दिन वर्ण की वैज्ञानिकता चली गयी और वर्ण एक सामजिक अनाचार बन गया. जिस दिन वर्ण में तुलना पैदा हुई - कि क्षत्रिय ऊपर, कि ब्राह्मण ऊपर, कि वैश्य ऊपर, कि शूद्र ऊपर, कि कौन नीचे, कि कौन पीछे - जिस दिन वर्ण का शोषण किया गया, वर्ण के वैज्ञानिक सिद्धांत को जिस दिन समाजिक शोषण की आधारशिला में रखा गया, उस दिन से वर्ण की धारणा अनाचार हो गयी. 

सभी सिद्धांतों का अनाचार हो सकता है, किसी भी सिद्धांत का शोषण हो सकता है. वर्ण की धारणा का भी शोषण हुआ. और इस मुल्क में जो वर्ण की धारणा के समर्थक हैं, वे उस वर्ण की वैज्ञानिकता के समर्थक नहीं हैं. उस वर्ण के आधार पर जो शोषण खड़ा है, उस के समर्थक हैं. उसकी वजह से वे तो डूबेंगे ही, वर्ण का एक बहुत वैज्ञानिक सिद्धांत भी डूब सकता है. 

चित्र अंतरजाल से 
एक चौथा वर्ग भी है, जिसे धन से भी प्रयोजन नहीं है, शक्ति से भी अर्थ नहीं है, लेकिन जिसका जीवन कहीं बहुत गहरे में सेवा और सर्विस के आस-पास घूमता है. जो अगर अपने आप को कहीं समर्पित कर पाए और किसी की सेवा कर पाए तो फुल्फिल्मेंट को, अप्ताता को उपलब्ध हो सकता है. 

ये जो चार वर्ग हैं, इनमें कोई नीचे ऊपर नहीं हैं. ऐसे चार मोटे विभाजन हैं. और कृष्ण की पूरी साइकोलोजी, कृष्ण का पूरा मनोविज्ञान इसी बात पर खड़ा है कि प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा तक पहुँचने का जो मार्ग है, वह उसके स्वधर्म से गुजरता है. स्वधर्म का मतलब हिन्दू नहीं, मुसलमान नहीं, जैन नहीं. स्वधर्म का मतलब, उस व्यक्ति का जो वर्ण है. और वर्ण का जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. लेकिन सम्बन्ध निर्मित हो गया. हो जाने के पीछे बहुत कारण हैं, वह मैं बात करूंगा." 

(आगे जारी...)   

इसी क्रम में - 
      

Friday, March 11, 2011

वर्ण की वैज्ञानिकता - The Caste System Revisited (Osho) - 1

अभी किसी पत्रिका में पढ़ा कि आधुनिक भारत में दलित उत्थान के एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्तम्भ कांशीराम का जन्मदिन आगामी १५ मार्च को है. 
इस पर मुझे ओशो रजनीश के एक प्रवचन (गीता दर्शन, भाग-१, सोलहवां प्रवचन, सन अनुमानतः १९७० के उपरांत) के उस भाग की याद हो आयी जिस में उन्होंने वर्ण-व्यवस्था की वैज्ञानिकता पर चर्चा की है.   
जाति और वर्ण व्यवस्था के मसले पर कुछ कह पाने जितना  न तो मैं पढ़ा-लिखा हूँ, न मुझे बड़ा भारी सामाजिक अनुभव है पर यह निश्चित है कि मैं किसी भी सामाजिक अन्याय और असमता का पक्षधर नहीं हूँ.  यह भी मैं समझता हूँ कि यह एक ऐसा संवेदनशील विषय है जिस पर साधारणतया  खुल कर, बिना पूर्वाग्रहों के, निष्पक्ष बहस बहुत मुश्किल है.  पर इस सब के उपरांत इस प्रवचन के मूल भाव से मैं पूर्णतया:सहमत हूँ और इस लिए आपके साथ साझा करने की इच्छा रखता हूँ. 
आज प्रस्तुत है पहला भाग:  
          

हे अर्जुन.....
और धर्म को देख कर भी तू भय करने योग्य नहीं है,
क्यूंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़ कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्त्तव्य
क्षत्रिय के लिए नहीं है /(श्लोक ३१, श्री भगवद गीता) 
"कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि और सब बातें छोड़ भी दो, तो भी क्षत्रिय हो, और क्षत्रिय के लिए युद्ध से भागना श्रेयस्कर नहीं है 

इसे थोडा समझ लेना जरूरी है, कई कारणों से.
    
एक तो विगत पांच सौ वर्षों में , सभी मनुष्य सामान हैं, इसकी बात इतनी प्रचारित की गयी है कि कृष्ण की यह बात बहुत अजीब लगेगी, बहुत अजीब लगेगी, कि तुम क्षत्रिय हो. समाजवाद के जन्म के पहले, सारी पृथ्वी पर, उन सारे लोगों ने, जिन्होंने सोचा है और जीवन को जाना है, बिलकुल ही दूसरी उनकी धारणा थी. उनकी धारणा थी कि कोई भी व्यक्ति सामान नहीं है. एक.

और दूसरी धारणा उस असमानता से ही बंधी हुई थी और वह यह थी कि व्यक्तियों के टाइप हैं, व्यक्तियों के विभिन्न प्रकार हैं. बहुत मोटे में, इस देश के मनीषियों नें चार प्रकार बांटे हुए थे, वे चार वर्ण थे. 

(चित्र krishna.org से साभार)
वर्ग की धारणा भी बुरी तरह, बुरी तरह निन्दित हुई. इसलिए नहीं कि वर्ण की धारणा के पीछे कोई मनोवैज्ञानिक सत्य नहीं है, बल्कि इस लिए कि वर्ण की धारणा मानने वाले लोग अत्यंत नासमझ सिद्ध हुए. वर्ण की धारणा को प्रतिपादित जो आज लोग कर रहे हैं, अत्यंत प्रतिक्रियावादी और अवैज्ञानिक वर्ग के हैं. संग-साथ से सिद्धांत तक मुश्किल में पड़ जाते हैं... 

इन भिन्नताओं की अगर हम बहुत मोटी रूप-रेखा बांधें, तो इस मुल्क ने कृष्ण के समय तक बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य को विकसित कर लिया था और हमने चार वर्ण बांटे थे. चार वर्णों में राज है. और जहां भी कभी मनुष्यों को बांटा गया है, वह चार से कम में नहीं बांटा गया है और चार से ज्यादा में भी नहीं बांटा गया: जिन्होनें भी बांटा है - इस मुल्क में ही नहीं , इस मुल्क के बाहर भी. कुछ कारण दिखाई पड़ता है. कुछ प्राकृतिक तथ्य मालूम होता है पीछे.

ब्राह्मण से अर्थ है ऐसा व्यक्ति, जिसके प्राणों का सारा समर्पण बौद्धिक है, इंटेलेक्चुअल है. जिसके प्राणों की सारी ऊर्जा बुद्धि में रूपांतरित होती है. जिसके जीवन की सारी खोज ज्ञान की खोज है. उसे प्रेम न मिले, चलेगा; उसे धन न मिले, चलेगा; उसे पद न मिले, चलेगा; लेकिन सत्य क्या है, इस के लिए वह सब समर्पित कर सकता है. पद, धन, सुख, सब खो सकता है. बस, एक लालसा, उसके प्राणों की उर्जा एक ही लालसा के इर्द-गिर्द जीती है, उसके भीतर एक ही दिया जल रहा है और वह दिया यह है कि ज्ञान कैसे मिले? इसको ब्राह्मण....../

आज पश्चिम में जो वैज्ञानिक हैं, वे ब्राह्मण हैं. आइन्स्टीन को ब्राह्मण कहना चाहिए, लुइ पाश्चर को ब्राह्मण कहना चाहिए. आज पश्चिम में तीन सौ वर्षों में जिन लोगों ने विज्ञान के सत्य की खोज में अपनी आहुति दी है, उनको ब्राह्मण कहना चाहिए.

दूसरा वर्ग है क्षत्रिय का. उसके लिए ज्ञान नहीं है उसकी आकांक्षा का स्त्रोत, उसकी आकांक्षा का स्त्रोत शक्ति है, पावर है. व्यक्ति हैं पृथ्वी पर, जिनका सारा जीवन शक्ति ही की खोज है. जैसे नीत्से, उस ने किताब लिखी है, विल टू पावर. किताब लिखी है उसने कि जो असली नमक हैं आदमी के बीच - नीत्से कहता है - वे सभी शक्ति पाने को आतुर हैं, शक्ति के उपासक हैं, वे सब शक्ति की खोज कर रहे हैं. इसलिए नीत्से ने कहा कि मैंने श्रेष्ठतम संगीत सुने हैं, लेकिन जब सड़क पर चलते हुए सैनिकों के पैरों की आवाज और उनकी चमकती हुई संगीनें रौशनी में मुझे दिखाई पड़ती है, इतना सुन्दर संगीत मैंने कोई नहीं सुना.

ब्राह्मण को यह आदमी पागल मालूम पड़ेगा, संगीन की चमकती हुई धार में कहीं कोई संगीत होता है? कि सिपाहियों के एक साथ पड़ते हुए कदमों की चाप में कोई संगीत होता है? संगीत तो होता है कंटेम्पलेशन में, चिन्तना में, आकाश की नीचे वृक्ष के पास बैठ कर तारों के सम्बन्ध में सोचने में. संगीत तो होता है खोज में सत्य की. यह पागल है नीत्से!"              

(आगे जारी.....)
  

Wednesday, March 02, 2011

मैं सिरप लंगोटे वाला सूं.... - Tu Raja Kee Rajdulari


बोल बम.
आज महाशिवरात्रि है. यानी कि शिव-विवाह की रात्रि.


२५-२७ की उम्र तक मैं इस दिन को शिव जी की जयंती समझता था (करारे भक्त-गण माफ़ करें). फिर जब राज़ खुला तो लगा कि हाँ, इस से ज्यादा न्याय-संगत उत्सव कोई और क्या होगा?
जैसा मैं समझा हूँ, हिन्दू पुराणों के अनुसार शिव और पार्वती का समागम इस ब्रह्माण्ड में उपस्थित सभी नर और नारी उर्जाओं के संगम का परिचायक है (शिवलिंग की विभिन्न व्याख्याएं आपको याद होगीं) और इसी लिए इनके विवाह को सृष्टि की निरंतरता का द्योतक भी माना गया होगा और पूजनीय भी. मुझे याद है हमारे घर-परिवारों में शिव-पार्वती विवाह एक धार्मिक कथा के रूप में कहा जाता रहा है.
इस विवाह कथा के संवाद का पहला भाग हरियाणा की एक पुरानी रागिनी के रूप में आप से बांटना चाहता हूँ, जो आप ने नए अवतार में निश्चित ही सुनी होगी - फिल्म "ओये लकी, लकी ओये" का शानदार गीत - "तू राजा की राजदुलारी". 
भक्तों के लिए थोड़ी दिक्कत यह है कि गीत का विडियो मूल फिल्म का ही है, सो भजन का फील नहीं है पर शब्दों से कहानी स्पष्ट होगी:



(विडियो यू-ट्यूब से साभार)


यह रागिनी धार्मिक से ज्यादा सामाजिक और आंचलिक परिपेक्ष्य में देखि जानी चाहिए.
पार्वती के विवाह के आग्रह पर शिव उसे विभिन्न तर्क दे कर विवाह से उन्मुख कर रहे हैं, पंक्तियाँ थोड़ी ठीक कर देने से स्पष्ट होगा -


तू राजा की राज-दुलारी, मैं सिर्फ लंगोटे वाला सूं (हूँ का हरियाणवी बोल)
भांग रगड़ के पिया करूं मैं, उंडी (कटोरा) - सोटे (दंड) वाला सूं
(शिव की वेश भूषा ध्यान कीजिये)...
 तू राजा की छोरी सै, मेरे एक भी दासी दोस्त नहीं
शाल दुशाले ओढ़न वाली, म्हारे कम्बल तक भी पास नहीं...
तू बागां की कोयल सै (है) अढे (यहाँ) बर्फ पड़े, हरी घास नहीं
किस तरयाँ (तरह) दिल लागेगा तेरा, सतरा चौ प्रकाश नहीं
किसी साहूकार के (यहाँ 'से' के अर्थ में प्रयुक्त) ब्याह करवाले, मैं खाली सोटे वाला सूं.
भांग-----
मैं धूनी तपा करूँ, तू आग देख के डर जायगी,
रंग घोल के पिया करूं, मेरा राग देख के डर जायगी
सौ सौ साल पड़े रहे जल में, तू नाग देख के डर जाएगी.
तांडव नाच करे बन में, रंग राग देख के डर जायगी
तने (तुझे) जुल्फां (ज़ुल्फ़) वाला छोरा चाहिए (यानी मोडर्न),
मैं लाम्बे (लम्बे) चोटे (जटा) वाला सूं.
भांग----


बोल बम!   
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